वेलफेयर बाबू
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र
'राम-राम विलफेयर बाबू !'
'राम-राम !' हरिदा दूध लेकर लौट रहे थे। रुककर उन्होंने राम-राम करने वाले को देखा। बद्री था। उसे देख, सहसा उन्हें कुछ याद आ गया।
'अरे, सुन !' बद्री को रोककर वह उसके नज़दीक गए और बोले, 'देख बद्री, तेरे घर के पिछवाड़े गंदगी बहुत बढ़ गई है आजकल। झाड़ भी बहुत उग आया है। साफ क्यों नहीं करता उसे ?... तुझे मालूम है, इससे मक्खी-मच्छर बढ़ते हैं। अरे, जहाँ रहते हो, कम-से-कम वह जगह तो साफ-सुथरी रखो।'
बद्री को क्या मालूम था कि सुबह की राम-राम के बदले में ‘विलफेयर बाबू’ का लिक्चर सुनना पड़ेगा।
'जी... वक्त नहीं मिला। एक-दो रोज में साफ कर दूँगा।'
'ठीक है। परसों तक सब साफ हो जाए,' कहकर हरिदा आगे बढ़े तो बद्री ने राहत की साँस ली, 'शुक्र है, जल्दी ही लिक्चर खत्म हो गया, नहीं तो...।'
हरिदा सर्वप्रिय कालोनी में वेलफेयर बाबू के नाम से ही जाने जाते हैं। यह नाम उन्हें इसी कालोनी के लोगों द्वारा दिया गया है। अब तो कालोनी का बच्चा-बच्चा उन्हें इसी नाम से जानता है। यहाँ तक कि पिछले डेढ़-दो साल से तो वह खुद अपना नाम भूल-सा बैठे हैं। कोई पुराना परिचित जब उन्हें हरिदा कहकर बुलाता है तो क्षणभर के लिए वह सोच में पड़ जाते हैं और पुकारने वाले का मुँह ताकते रह जाते हैं।
एक प्राइवेट कंपनी में हैड-क्लर्क थे- हरिदा। सेवा-निवृत्त होने से दो वर्ष पूर्व ही प्लॉट खरीदा था उन्होंने- ‘सर्वप्रिय कालोनी’ में। जिस समय उन्होंने मकान बनवाया, उस वक्त दो-चार मकान ही बने थे यहाँ। आगे-पीछे, दूर-दूर तक उजाड़ था। पत्नी कहा भी करती, 'कहाँ जंगल-बियाबान में मकान बनवाया ! दूर-दूर तक न आदम, न आदम की जात।... मुझे तो डर लगता है यहाँ।'
इस पर हरिदा समझाते हुए कहा करते, 'शुरू-शुरू में सभी कालोनियाँ ऐसी ही होती हैं भागवान ! एक-डेढ़ साल में देखना यहाँ मकान ही मकान दिखाई देंगे। और, आजकल जमीन शहर के बाहर ही खाली है। खाली भी और सस्ती भी। शहर में तो जमीन हाथ नहीं रखने देती।'
कालोनी में जब भी कोई नया मकान बनना आरंभ होता, हरिदा स्वयं जाकर मकान मालिक से मिलते, उन्हें अपना परिचय देते। घर में लाकर चाय-पानी पिलाते और कहते, 'मकान बनते ही आप लोग आ जाइए इधर। आपके आ जाने से रौनक बढ़ जाएगी।'
और फिर, देखते ही देखते एक दिन सर्वप्रिय कालोनी में मकान ही मकान नज़र आने लगे। लोग आकर रहने लगे तो सुनसान-सी कालोनी जीवंत हो उठी। तब हरिदा ने खुश होकर पत्नी से कहा था, 'देखा ! कालोनी कितनी जल्दी आबाद होती है आजकल।'
लेकिन, धीरे-धीरे हरिदा ने देखा, सर्वप्रिय कालोनी सर्वप्रिय कहलाये जाने लायक नहीं है। लोगों के आकर रहने से बहुत गंदगी बढ़ने लगी थी। नालियों के अभाव में घरों का गंदा पानी, गलियों-रास्तों में जहाँ-तहाँ फैलकर सड़ता रहता था और गंधाने लगता था। लोगों को आने-जाने में भी काफी परेशानी उत्पन्न होने लगी थी। कूड़े-कचरे के ढेर जगह-जगह छोटे-छोटे पर्वतों का रूप धारण करने लगे थे। कालोनी के बड़े लोग तो दिशा-मैदान के लिए दूर खेतों अथवा गंदे नाले की ओर निकल जाते किन्तु बच्चे तो जहाँ-तहाँ बैठकर गंदा फैलाते रहते।
कालोनी में बढ़ी इस गंदगी को देख हरिदा चिंतित और दुखी थे, ‘कौन कहेगा इसे सर्वप्रिय कालोनी ?... लोग बढ़ती गंदगी के प्रति जरा भी चिंतित नज़र नहीं आते।’
एक दिन उन्होंने मन-ही-मन बीड़ा उठा लिया, ‘वह अपनी इस कालोनी को गंदगी से बचाएंगे।’
घर पर वह अकेले थे। औलाद थी नहीं। पत्नी थी और वह थे। सेवा-निवृत्त हो जाने के बाद से कोई काम-धाम भी नहीं रहा था। बस, उन्होंने घर से बाहर निकलकर कालोनी के लोगों से मिलना-जुलना प्रारंभ कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर समझाने लगे। लोग उनकी बातें सुनते, सहमत भी होते, पर उनकी बातों को अमल में न लाते। प्रकाश बाबू, वर्मा जी, घोष साहब और पांडे जी जैसे कुछ लोग थे जो कुछ करना चाहते थे, पर कर नहीं पा रहे थे।
दूसरी ओर कालोनी में दूबे, हरिहर, गणेसी और असलम जैसे लोग भी थे जो हरिदा की बातों को फालतू की बकवास समझते और जब तब उनका मजाक उड़ाने को तैयार रहते। लेकिन, हरिदा ने तो हिम्मत न हारने का मन-ही-मन संकल्प लिया था। उन्हें जहाँ भी अवसर मिला, वह लोगों को घेर-घारकर समझाने लगते, “देखो, आप लोगों का एक सपना रहा होगा।... हर आदमी का होता है कि उसका एक अपना मकान हो, प्यारा-सा ! और अब आपका सपना पूरा हुआ है... ईश्वर की कृपा से आपका अपना मकान है... कितनी चाहतों और हसरतों से खून-पसीना एक कर आपने अपने सपने को साकार किया है। क्या आप चाहेंगे कि आप जब कभी अपने दोस्त, रिश्तेदार या सगे-संबंधी को अपने घर पर बुलाएं तो वह नाक चढ़ाकर आपसे कहे- अरे भाई, कैसी गंदी कालोनी में मकान बनवाया है आपने। नहीं न ? अपनी इस कालोनी को साफ-सुथरा हम-तुम मिलकर ही रख सकते हैं। गंदगी होगी तो बीमारियाँ बढेंगी... बीमारियाँ बढेंगी तो आज के मँहगाई के जमाने में हमें अपनी अनेक अहम जरूरतों का गला घोंटकर डाक्टरों की जेबें भरनी पड़ेंगी।...”
हरिदा जैसे ही बीच में कुछेक पल के लिए बोलना बन्द करते, गणेसी अजीब-सी मुद्रा बनाकर ‘टुणन...टुन’ बोल उठता और सभी लोग ठठाकर हँस पड़ते।
परन्तु, हरिदा इस सबसे बेअसर रहते और उनका कहना जारी रहता, “और भाइयो, गंदगी से बचने के लिए हमें-तुम्हें मिलकर ही उपाय करने होंगे। इस अन-अप्रूड कालोनी में सरकार तो कुछ करने से रही। हमें ही अपनी गलियों में नालियों का निर्माण करना होगा, ताकि हमारे घरों का बेकार पानी यहाँ-वहाँ फैलकर गंदगी न फैलाए।”
“पर नालियों का पानी जाएगा कहाँ ?” कोई प्रश्न करता।
“कालोनी के बाहर गंदे नाले में... और कहाँ।”
“इसके लिए रुपया कहाँ से आएगा ?” फिर प्रश्न उछलता।
“चंदा करके... हर घर इसके लिए चंदा देगा।” हरिदा का उत्तर होता। चंदे के नाम पर चुप्पी व्याप जाती। लोग चुपचाप इधर-उधर खिसकने लगते।
पर हरिदा मायूस नहीं हुए। वह तो दृढ़-संकल्प किए थे। उन्हें भीतर-ही-भीतर विश्वास था कि एक दिन वह लोगों को इसके लिए तैयार कर ही लेंगे। वह चंदे के लिए स्वयं घर-घर गए। कुछ का सहयोग मिला, कुछेक ने टका-सा जवाब दे दिया। कुछ ने चंदा हड़प जाने वालों के किस्से सुनाकर उन्हें बुरा-भला भी कहा। पर हरिदा ने बुरा नहीं माना। वह तो ठान बैठे थे। एक दिन में पहाड़ नहीं खोदा जा सकता, यह वह अच्छी तरह जानते थे। यह कार्य धीमे-धीमे ही होगा। लोगों को समझाना होगा, विश्वास दिलाना होगा। यह सब वह अपने लिए ही नहीं कर रहे हैं, इसमें सबका ही हित है।
कुछ दिन की दौड़-धूप के बाद हरिदा का साथ कुछ लोगों ने देना आरंभ कर दिया तो उन्हीं की देखादेखी अन्य लोग भी आगे आए। कालोनी के आठ-दस घरों को छोड़कर, सभी ने नालियों के निर्माण हेतु चंदा दिया। एकत्र हुए चंदे के पैसों से कालोनी में नालियों का निर्माण हुआ तो जहाँ-तहाँ फैले पानी से लोगों को निजात मिली।
इस छोटी-सी सफलता से हरिदा प्रसन्न हुए। कुछ उत्साह भी बढ़ा। अब उन्होंने आगे के कार्यक्रम निश्चित किए। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेर और जहाँ-तहाँ उगे झाड़ों को साफ करना था। यह अकेले व्यक्ति का काम नहीं था, इसके लिए भी कालोनी के लोगों का सहयोग अपेक्षित था। यह कार्य श्रमदान के जरिए ही पूरा हो सकता था। इन्हीं दिनों, स्कूल-कालेज में छुट्टियाँ थीं। हरिदा ने कुछ छात्रों और कुछ लोगों की मदद से एक दिन ‘सफाई अभियान’ शुरू कर दिया। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेरों को साफ किया गया। गलियों के गड्ढ़े भरे गए। झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंका गया। गलियों में मिट्टी डालकर उन्हें ऊँचा किया गया।
हरिदा मन ही मन बेहद खुश थे। खुश भी और उत्साहित भी। उन्होंने जो बीड़ा उठाया था, वह आहिस्ता-आहिस्ता पूरा हो रहा था। सर्वप्रिय कालोनी को सर्वप्रिय बनाकर ही दम लेंगे, वह मन-ही-मन सोचते। पर यह तभी संभव था जब कालोनी का हर व्यक्ति उनका साथ दे, अपनी जिम्मेदारी को समझे। कालोनी के आठ-दस लोग जो असहयोग की मुद्रा अपनाए थे, हरिदा चाहते थे कि वे भी उनका साथ दें। असलम, गणेसी, दूबे, हरिहर और मंगल आदि को हरिदा जब-तब समझाने की कोशिश करते, परंतु वे तो जैसे चिकने घड़े थे। कुछ असर ही नहीं होता था उन पर !
असलम और गणेसी तो अपनी-अपनी तरकश में हरिदा के लिए व्यंग्य बाण सदैव तैयार रखते और अवसर पाते ही हरिदा की ओर चला देते। दरअसल, कालोनी में यही दो व्यक्ति थे जिनकी शह पर कुछ अन्य लोग असहयोग की मुद्रा अपनाए थे।
गणेसी ने पिछले ही वर्ष मकान बनाया था और एक छोटा कमरा अपने पास रखकर शेष किराये पर उठा दिया था। सारा दिन सुरती फांकने और इधर-उधर बैठकर वक्त काटने के अलावा उसके पास कोई काम न था। असलम जिसने गणेसी के पड़ोस में मकान बनाया था, गणेसी का दोस्त था। असलम के कोई औलाद नहीं थी। पत्नी बहुत पहले मर चुकी थी। दूसरी शादी उसने की नहीं। लेकिन गणेसी की तरह उसने अपना मकान किराये पर नहीं चढ़ाया था। पूरे मकान में अकेला ही रहता था। प्रायः वह कहता, ”मेरी कौन-सी आस-औलाद है। शहर में रहता हूँ तो बना लिया मकान। भाई का परिवार गाँव में खेती-बाड़ी करता है। गाँव छोड़कर वे शहर आना नहीं चाहते। भतीजा-भतीजी हैं, बड़े होकर रहना चाहेंगे तो रह लेंगे।”
एक दिन असलम ने हरिदा से पूछा, “विलफेयर बाबू, कालोनी खातिर बड़ा काम कर रहे हैं आप। कौन पार्टी से हैं आप ?”
“पार्टी ?” हरिदा असलम के प्रश्न पर चौंके लेकिन तुरंत ही कहा, “नहीं, असलम भाई, मेरी कोई पार्टी-वार्टी नहीं है।”
“फिर कोई सवारथ होगा ?”
“स्वार्थ ? कैसा स्वार्थ !” दूसरा प्रश्न भी चैंकाने वाला था लेकिन हरिदा ने फिर हँसते हुए जवाब दिया, “मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, असलम भाई। बस, स्वार्थ अगर है तो इतना कि जहाँ जिस कालोनी में हम-तुम रहते हैं, वह साफ-सुथरी हो… लोग आपस में मिलकर इसके विकास के लिए कार्य करें।”
“बिन सवारथ आजकल कोई जन-सेवा नहीं करता, विलफेयर बाबू ! आप ठहिरे रिटायर्ड आदमी ! आप जैसा आदमी पहले छोटी-मोटी कालोनी से ही अपनी पुलिटिक्स शुरू करता है। नेता बनने के आजकल बहुत फायदे हैं न !... जहाँ थोड़ी-बहुत लोकप्रियता मिली नहीं कि बस, कउंसलर-फउंसलर के सपने देखने लगते हैं। अब ई पुलिटिक्स साली लोगों का दिमाग खराब किए है, लोगों का क्या कसूर ?”
हरिदा एकाएक ठहाका लगाकर हँस पड़े, असलम की बातों पर। बोले, “अरे, नहीं असलम भाई, मेरा कोई इरादा नहीं है, काउंसलर आदि बनने का।”
“शुरू में सब इहि कहत हैं विलफेयर बाबू...” गणेसी सुरती फाँकते हुए बोला और फिर उसने सुरती वाली हथेली असलम की ओर बढ़ा दी। असलम ने चुटकी भरी और उसे निचले होंठों में दबाकर बोला, “अगर चुनाव-उनाव लड़ने का इरादा नहीं तो काहे दौड़-धूप किए रहते हो ?” असलम ने समझाने के लहजे में कहना प्रारंभ किया, “देखिए विलफेयर बाबू, आज की दुनिया में अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए। सरबप्रिय को सरबप्रिय बनाने का ठेका आपने काहे उठा रखा है ?”
हरिदा समझ रहे थे कि इतनी आसानी से ये लोग समझने वाले नहीं हैं। बोले, “ठेका लेने की बात तो मैं नहीं कहता, लेकिन आप लोग साथ दो या न दो, पर मैं तो सर्वप्रिय के लिए जो बन पड़ेगा, करता रहूँगा। मैंने इस कालोनी में आप लोगों से बहुत पहले मकान बनवाया था, तब जब यहाँ जंगल-बियाबान था।... बस, समझ लो, इस कालोनी से लगाव हो गया है मुझे।”
तभी, देश में चुनाव के दिन आ गए। वोटों के चक्कर में सरकार ने अनअप्रूड कालोनियों को पास करना शुरू कर दिया। सर्वप्रिय भी पास हो गई। कालोनी के लोग खुश थे। सबसे अधिक हरिदा।
चुनाव के बाद कालोनी के कुछ लोगों ने वेलफेयर एसोसिएशन बनाने का प्रस्ताव रखा तो दस-बारह लोगों को छोड़कर सभी तैयार हो गए। एसोसिएशन बनी। एसोसिएशन के लिए अध्यक्ष, महामंत्री तथा सदस्यों का चुनाव किया गया। पांडेय जी को अध्यक्ष और हरिदा को महामंत्री पद हेतु चुना गया।
असलम ने हरिदा को बधाई दी और साथ ही कहा, ”आ गए न विलफेयर बाबू लाइन पर... हमने तो पहले ही कहा था, ये पार्टी पुलिटिक्स का नशा यूँ ही नहीं उतरता। आज एसोसिएशन के महामंतरी बने हैं, कल कुछ और भी बन जाइएगा। लगे रहिए बस लाइन पर।”
हरिदा असलम के व्यंग्य पर नाराज नहीं हुए। बोले, “असलम भाई, मुझे पोलिटिक्स-वोलिटिक्स कुछ नहीं करनी है। मैं तो कालोनी के लोगों और कालोनी की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता हूँ, बस।”
और सच में, सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के महामंत्री बनने के बाद तो हरिदा और अधिक सक्रिय हो उठे। कमेटी के दफ्तर में आए दिन उनका चक्कर लगने लगा। अब वे कई एप्लीकेशन्स लिखकर ले जाते और पुरानी दी गई एप्लीकेशन्स के बारे में तहकीकात करते कि क्या हुआ ? लोगों के छोटे-मोटे काम करवाने में सदैव आगे रहते। किसी को बिजली का कनेक्शन नहीं मिल रहा तो उसको संग लेकर बिजली दफ्तर में जा रहे हैं। किसी को सीमेंट मिलने में दिक्कत हो रही है तो उसे सीमेंट दिलवाने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। अखबारों में सर्वप्रिय कालोनी की समस्याओं पर पत्र छपवा रहे हैं। उनकी लिखा-पढ़ी से कालोनी में बिजली के खंभे लगे, कच्ची सड़कें पक्की बनीं और सार्वजनिक “शौचालय बने। नगर निगम ने कालोनी में एक प्राथमिक पाठशाला और एक डिस्पेंसरी खोलने की घोषणा भी कर दी। यह सब हरिदा की लगन और तत्परता से हुआ।
कालोनी के लोग भी आदर करते थे वेलफेयर बाबू का। किसी के घर पर बच्चे का मुंडन है या जन्म दिन, लड़की की शादी है या लड़के की, अखंड-पाठ या भजन-कीर्तन, वेलफेयर बाबू को अवश्य याद किया जाता और वह सहर्ष सम्मिलित भी होते। पहुँचने में जरा देरी क्या होती कि लोग ‘वेलफेयर बाबू नहीं आए’, ‘वेलफेयर बाबू को नहीं बुलाया क्या ?’ आदि प्रश्न करते दिखाई देते।
अब कालोनी में न पानी की दिक्कत थी, न बिजली की। बस-सेवा भी सुबह-शाम के अलावा अब दिनभर रहने लगी थी।
हरिदा शाम के समय घर के बाहर खड़े थे कि असलम सामान उठाए बस-स्टैंड की ओर जाता दिखाई दिया।
“क्यों असलम भाई, कहाँ की तैयारी हो गई ?”
“गाँव जा रहे हैं विलफेयर बाबू, दो महीने के लिए।” असलम ने रुककर जवाब दिया, “आजकल आप बहुत व्यस्त हैं, विलफेयर बाबू। लगे रहिए... नगर निगम के अब की चुनाव हों तो खड़े हो जाइएगा आप भी। खुदा कसम, जरूर जीतिएगा आप।” कहकर असलम बस-स्टैंड की ओर बढ़ गया। हरिदा खड़े-खड़े सोचते रहे असलम के विषय में - कैसा आदमी है यह भी !
जब से कालोनी के निकट एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट बने हैं, मार्किट आदि की सुविधा के अलावा अन्य कई सुविधाएं भी कालोनी वालों को मिलने लगीं। यही नहीं, चार-पाँच साल पहले शहर से कटी हुई यह कालोनी अब शहर से बिलकुल जुड़-सी गई थी।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन हरिदा के ऊपर जैसे गाज गिरी। वह स्तब्ध रह गए। वह समझ ही नहीं पाए एक पल के लिए कि यह उनके साथ क्या होने जा रहा है !... ऐसा कैसे हो सकता है ?... फिर स्वयं से ही जैसे बोले उठे, “ऐसा कैसे हो सकता है ?... अंधेरगर्दी है क्या ? वह शहर के विकास प्राधिकरण के आफिस जाएंगे और पूछेंगे- यह कैसे हो सकता है ?”
कालोनी के जिस किसी व्यक्ति ने भी सुना, हत्प्रभ रह गया- ‘यह वेलफेयर बाबू के संग क्या हुआ ?’ हर कोई दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया, यह जानने के लिए कि जो कुछ उन्होंने सुना है, क्या वह वाकई सच है ?
हरिदा को शहर विकास प्राधिकरण की ओर से नोटिस मिला था। उनका मकान कालोनी के नक्शे से बाहर दर्शाया गया था। और जिस जमीन पर वह बना था, उसे सरकारी जमीन घोषित किया गया था। नोटिस में कहा गया था कि एक माह के भीतर वह अपना इंतजाम दूसरी जगह कर लें अन्यथा मकान गिरा दिया जाएगा।
हरिदा और उनकी पत्नी नोटिस पढ़कर भूख-प्यास सब भूल बैठे। यह क्या हो गया? बैठे-बिठाये ये कैसा पहाड़ टूट पड़ा उन पर ? हरिदा भीतर से दुःखी और परेशान थे- यह सरासर अंधेरगर्दी और अन्याय है। पाँच साल के बाद उन्हें होश आ रहा है कि यह सरकारी जमीन है। नक्शे से बाहर दिखा दिया उनका मकान ! कहते हैं, एक माह तक खाली कर दूसरी जगह चले जाओ। मकान गिराया जाएगा।
“हुंह ! गिराया जाएगा। कैसे गिरा देंगे ! पूरी कालोनी खड़ी कर दूँगा अपने मकान के आगे।” वह गुस्से में बुदबुदाने लगे।
शाम को वह मकान की छत पर टहलते रहे और दूर-दूर तक बने कालोनी के मकानों को देखते रहे। उनका मकान कालोनी के पूर्वी कोने में है। एक तिकोनी खुली जगह में उनका ही अकेला मकान है। उनके मकान और कालोनी के बीच एक पतली सड़क है। सामने ही हाउसिंग सोसायटी के फ्लैट बने हैं। बीच की खाली जगह पर शहर विकास प्राधिकरण सिनेमा-कम-शापिंग सेंटर बना रहा है। टहलते हुए वह फिर बुदबुदाने लगे- ‘पूरी कालोनी में एक उन्हीं का मकान दिखा उन्हें ! वह भी देखते हैं, कैसे गिराते हैं उनका मकान !”
अंधेरा घिरने लगा तो वह नीचे उतर आए। नीचे आकर चुपचाप बिस्तर पर लेट गए। दिमाग में जैसे कोई चकरी-सी घूम रही थी।
इस बीच सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के कुछ लोगों को संग लेकर वह कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े-फिरे। शहर विकास प्राधिकरण के अधिकारियों से मिले। चेयरमैन से भी। अपने इलाके के काउंसलर और एम.पी. के पास जाकर भी गुहार लगाई। जहाँ-जहाँ जा सकते थे, गए। पर घर लौटकर उन्हें लगता था कि उनकी यह दौड़-धूप सार्थक नहीं होने वाली।
इलाके के काउंसलर और एम.पी. का दबाव पड़ने से प्राधिकरण ने हरिदा को मुआवजा देना स्वीकार कर लिया तो वह बौखला उठे, “मुआवजा देंगे ! अरे, छह सौ रुपये गज से भी ऊपर का रेट है यहाँ और तुम दोगे मुझे बहत्तर रुपये गज के हिसाब से मुआवजा ! मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा मुआवजा... मैं लडूंगा... इस अंधेरगर्दी के खिलाफ लड़ूंगा।“
अब हरिदा को न खाना अच्छा लगता, न पीना। रात-रात भर जागकर न जाने क्या सोचते रहते। पत्नी अलग दुःखी थी। वह कहती, “दुःख के पहाड़ किस पर नहीं टूटते। पर क्या कोई खाना-पीना छोड़ देता है ? खाओगे-पिओगे नहीं तो लड़ोगे कैसे ?” कालोनी के लोगों को उनसे पूरी सहानुभूति थी। वे उनके सम्मुख सरकार की आलोचना करते। पांडे जी और कुछ अन्य लोगों ने हरिदा को मुआवजा ले लेने की सलाह दी। उनका विचार था कि सरकार से लड़ा नहीं जा सकता। उन्हें दूसरी जगह प्लाट लेकर मकान बना लेना चाहिए, या बना बनाया खरीद लेना चाहिए। इसी कालोनी में मिल भी जाएगा, ठीक रेट पर।
पत्नी समझाती, “आजकल रिश्वत का बोलबाला है। अफसरों को कुछ दे-दिलाकर खुश कर दो तो शायद...।” चुपचाप सुनते रहते हरिदा। ‘हाँ-हूँ’ तक नहीं करते।
चिंता और भय के तले दिन व्यतीत होते रहे और एक मास पूरा हो गया। फिर दूसरा। बीच-बीच में हरिदा प्राधिकरण आफिस में जाकर पता करते रहे- यही मालूम होता कि उनके प्रार्थनापत्र पर विचार किया जा रहा है, लेकिन उम्मीद बहुत कम है।
धीरे-धीरे तीन माह बीत गए तो हरिदा ने सोचा, शायद उनके प्रार्थनापत्र पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया गया है। इसीलिए मामला ठंडा पड़ गया है और उनका मकान गिराने का इरादा सरकार ने छोड़ दिया है। कालोनी के लोग भी हरिदा को तसल्ली देते- “अब कुछ नहीं होगा, विलफेयर बाबू ! होना होता तो अब तक दूसरा नोटिस आ गया होता या आ गए होते वे मकान गिराने।”
धीरे-धीरे हरिदा चिंतामुक्त होने लगे थे कि एक दिन दलबल के साथ प्राधिकरण के अधिकारी आ पहुँचे- दैत्याकार बुलडोजर लेकर ! सुबह का वक्त था। हरिदा नाश्ता करके उठे ही थे। प्राधिकारण के अधिकारियों ने आगे बढ़कर उन्हें घंटेभर की मोहलत दी, सामान निकालकर बाहर रख लेने के लिए। पर हरिदा तो स्तब्ध और सन्न् रह गए थे। फटी-फटी आँखों से वह अपने मकान के बाहर खड़ी भीड़ को देखते रहे। कुछ सूझा ही नहीं, क्या बोलें, क्या करें। चीखें-चिल्लाएं या रोएं। पत्नी घबराहट और भय में रोने- चिल्लाने लगी थी और बदहवास-सी कभी बाहर आती थी, कभी घर के अंदर जाती थी। पुलिस वालों ने घेरा बना रखा था। कालोनी के किसी भी आदमी को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था। पांडे जी, प्रकाश बाबू और शंकर ने आगे बढ़कर विरोध किया तो अधिकारियों ने कहा, “हमने इन्हें पहले ही काफी समय दे दिया है। यह सरकारी जमीन है। मकान तो अब गिरेगा ही। आप हमारे काम में दखल न दें और हमें अपना काम करने दें।” यही नहीं, पुलिस वालों ने उन्हें खदेड़कर घेरे से बाहर भी कर दिया था।
अधिकारीगण हरिदा को फिर समझाने लगे। वे कुछ भी नहीं सुन रहे थे जैसे। संज्ञाशून्य से बस अपलक देखते रहे।
घंटेभर की अवधि समाप्त होते ही अधिकारियों ने पुलिस की मदद से सामान बाहर निकालना आरंभ कर दिया। हरिदा की पत्नी छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा सामान निकालकर बाहर खुले में रख दिया गया। पुलिस वालों ने हरिदा और उनकी पत्नी को मकान से बाहर खींच लिया। एकाएक हरिदा चीख उठे, “नहीं, तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते। पहले मुझ पर चलाओ बुलडोजर ! फिर गिराना मेरा मकान !... जीते-जी नहीं गिरने दूंगा मैं अपना मकान।” और वह बुलडोजर के आगे लेट गए। सिपाहियों ने उन्हें उठाकर एक ओर किया तो वह फिर चीखने-चिल्लाने लगे, “मैं तुम सबको देख लूँगा... मैं हाईकोर्ट में जाऊँगा... तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते।” और फिर वह विक्षिप्त -से होकर गालियाँ देने लगे। पत्थर उठाकर फेंकने लगे। सिपाहियों ने उन्हें आगे बढ़कर दबोच लिया।
हरिदा चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे लेकिन उनकी चीख-चिल्लाहट नक्कारखाने में तूती की आवाज-सी अपना दम तोड़ रही थी। वह अवश थे, असहाय थे। कोई साथ नहीं दे रहा था। कोई दीवार बनकर खड़ा नहीं हो रहा था, इस अन्याय के विरुद्ध ! पूरी कालोनी शांत थी, हलचल विहीन ! डरी-डरी, सहमी-सी। बस, पुलिस घेरे के बाहर खड़ी तमाशा देखती रही।
देखते-ही-देखते, बुलडोजर ने हरिदा का मकान धराशायी कर दिया। ‘यह जमीन सरकारी है’ का बोर्ड भी गाड़ दिया गया वहाँ पर।
तभी, असलम गाँव से लौटा था। बस से उतरा तो वेलफेयर बाबू के घर के बाहर भीड़ देखकर हैरत में पड़ गया। आगे बढ़कर देखा तो अवाक् रह गया वह। वेलफेयर बाबू का मकान मलबे में तब्दील हो चुका था। पुलिस और प्राधिकरण के अधिकारी अब जाने की तैयारी में थे। असलम ने देखा, वेलफेयर बाबू की पत्नी रो-रोकर बेहाल हो रही थी और कह रही थी, “देख लिया, देख लिया आपने ! बड़ा गुमान था न आपको कालोनी के लोगों पर ! कहते थे- दीवार बनकर खड़े हो जाएंगे। अरे, कोई नहीं आता, मुसीबत की घड़ी में आगे... सब दूर खड़े होकर तमाशा देखते रहे... हे भगवान ! कहाँ जाएंगे अब हम ?” और वह मुँह में साड़ी का पल्लू दबाकर रोने लगी।
असलम ने हाथ में उठाया सामान वहीं जमीन पर रखा और वेलफेयर बाबू की पत्नी के निकट आकर बोला, “आप ठीक कहती हैं, भाभीजान ! जिन विलफेयर बाबू ने बिना स्वारथ इस कालोनी के लिए रात-दिन एक किया, जो दौड़-दौड़कर लोगों का काम करते रहे, उन्हीं का मकान इनके सामने टूटता रहा और ये लोग चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देखते रहे। कितने मतलबी और स्वारथी हैं इह लोग...”
हरिदा मकान के मलबे के पास खड़े होकर पथराई आँखों से अपनी तबाही का मंजर देख रहे थे और सोच रहे थे- यह कैसा अंधड़ था जो अभी-अभी आया था और उनका सबकुछ तहस-नहस कर गया।
असलम ने आगे बढ़कर पीछे से उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “मेरा मकान खाली पड़ा है, विलफेयर बाबू ! चलिए, जब तक जी चाहे, चलकर रहिए।”
हरिदा ने मुड़कर असलम की ओर देखा। एक पल टकटकी लगाए देखते रहे पनीली आँखों से असलम की ओर। सहसा, उनके होंठ कांपे, नथुने हिले और वह वहीं ईंटों के ढेर के पास बैठ फूट-फूटकर रोने लग पड़े।
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” में संग्रहित )
'राम-राम !' हरिदा दूध लेकर लौट रहे थे। रुककर उन्होंने राम-राम करने वाले को देखा। बद्री था। उसे देख, सहसा उन्हें कुछ याद आ गया।
'अरे, सुन !' बद्री को रोककर वह उसके नज़दीक गए और बोले, 'देख बद्री, तेरे घर के पिछवाड़े गंदगी बहुत बढ़ गई है आजकल। झाड़ भी बहुत उग आया है। साफ क्यों नहीं करता उसे ?... तुझे मालूम है, इससे मक्खी-मच्छर बढ़ते हैं। अरे, जहाँ रहते हो, कम-से-कम वह जगह तो साफ-सुथरी रखो।'
बद्री को क्या मालूम था कि सुबह की राम-राम के बदले में ‘विलफेयर बाबू’ का लिक्चर सुनना पड़ेगा।
'जी... वक्त नहीं मिला। एक-दो रोज में साफ कर दूँगा।'
'ठीक है। परसों तक सब साफ हो जाए,' कहकर हरिदा आगे बढ़े तो बद्री ने राहत की साँस ली, 'शुक्र है, जल्दी ही लिक्चर खत्म हो गया, नहीं तो...।'
हरिदा सर्वप्रिय कालोनी में वेलफेयर बाबू के नाम से ही जाने जाते हैं। यह नाम उन्हें इसी कालोनी के लोगों द्वारा दिया गया है। अब तो कालोनी का बच्चा-बच्चा उन्हें इसी नाम से जानता है। यहाँ तक कि पिछले डेढ़-दो साल से तो वह खुद अपना नाम भूल-सा बैठे हैं। कोई पुराना परिचित जब उन्हें हरिदा कहकर बुलाता है तो क्षणभर के लिए वह सोच में पड़ जाते हैं और पुकारने वाले का मुँह ताकते रह जाते हैं।
एक प्राइवेट कंपनी में हैड-क्लर्क थे- हरिदा। सेवा-निवृत्त होने से दो वर्ष पूर्व ही प्लॉट खरीदा था उन्होंने- ‘सर्वप्रिय कालोनी’ में। जिस समय उन्होंने मकान बनवाया, उस वक्त दो-चार मकान ही बने थे यहाँ। आगे-पीछे, दूर-दूर तक उजाड़ था। पत्नी कहा भी करती, 'कहाँ जंगल-बियाबान में मकान बनवाया ! दूर-दूर तक न आदम, न आदम की जात।... मुझे तो डर लगता है यहाँ।'
इस पर हरिदा समझाते हुए कहा करते, 'शुरू-शुरू में सभी कालोनियाँ ऐसी ही होती हैं भागवान ! एक-डेढ़ साल में देखना यहाँ मकान ही मकान दिखाई देंगे। और, आजकल जमीन शहर के बाहर ही खाली है। खाली भी और सस्ती भी। शहर में तो जमीन हाथ नहीं रखने देती।'
कालोनी में जब भी कोई नया मकान बनना आरंभ होता, हरिदा स्वयं जाकर मकान मालिक से मिलते, उन्हें अपना परिचय देते। घर में लाकर चाय-पानी पिलाते और कहते, 'मकान बनते ही आप लोग आ जाइए इधर। आपके आ जाने से रौनक बढ़ जाएगी।'
और फिर, देखते ही देखते एक दिन सर्वप्रिय कालोनी में मकान ही मकान नज़र आने लगे। लोग आकर रहने लगे तो सुनसान-सी कालोनी जीवंत हो उठी। तब हरिदा ने खुश होकर पत्नी से कहा था, 'देखा ! कालोनी कितनी जल्दी आबाद होती है आजकल।'
लेकिन, धीरे-धीरे हरिदा ने देखा, सर्वप्रिय कालोनी सर्वप्रिय कहलाये जाने लायक नहीं है। लोगों के आकर रहने से बहुत गंदगी बढ़ने लगी थी। नालियों के अभाव में घरों का गंदा पानी, गलियों-रास्तों में जहाँ-तहाँ फैलकर सड़ता रहता था और गंधाने लगता था। लोगों को आने-जाने में भी काफी परेशानी उत्पन्न होने लगी थी। कूड़े-कचरे के ढेर जगह-जगह छोटे-छोटे पर्वतों का रूप धारण करने लगे थे। कालोनी के बड़े लोग तो दिशा-मैदान के लिए दूर खेतों अथवा गंदे नाले की ओर निकल जाते किन्तु बच्चे तो जहाँ-तहाँ बैठकर गंदा फैलाते रहते।
कालोनी में बढ़ी इस गंदगी को देख हरिदा चिंतित और दुखी थे, ‘कौन कहेगा इसे सर्वप्रिय कालोनी ?... लोग बढ़ती गंदगी के प्रति जरा भी चिंतित नज़र नहीं आते।’
एक दिन उन्होंने मन-ही-मन बीड़ा उठा लिया, ‘वह अपनी इस कालोनी को गंदगी से बचाएंगे।’
घर पर वह अकेले थे। औलाद थी नहीं। पत्नी थी और वह थे। सेवा-निवृत्त हो जाने के बाद से कोई काम-धाम भी नहीं रहा था। बस, उन्होंने घर से बाहर निकलकर कालोनी के लोगों से मिलना-जुलना प्रारंभ कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर समझाने लगे। लोग उनकी बातें सुनते, सहमत भी होते, पर उनकी बातों को अमल में न लाते। प्रकाश बाबू, वर्मा जी, घोष साहब और पांडे जी जैसे कुछ लोग थे जो कुछ करना चाहते थे, पर कर नहीं पा रहे थे।
दूसरी ओर कालोनी में दूबे, हरिहर, गणेसी और असलम जैसे लोग भी थे जो हरिदा की बातों को फालतू की बकवास समझते और जब तब उनका मजाक उड़ाने को तैयार रहते। लेकिन, हरिदा ने तो हिम्मत न हारने का मन-ही-मन संकल्प लिया था। उन्हें जहाँ भी अवसर मिला, वह लोगों को घेर-घारकर समझाने लगते, “देखो, आप लोगों का एक सपना रहा होगा।... हर आदमी का होता है कि उसका एक अपना मकान हो, प्यारा-सा ! और अब आपका सपना पूरा हुआ है... ईश्वर की कृपा से आपका अपना मकान है... कितनी चाहतों और हसरतों से खून-पसीना एक कर आपने अपने सपने को साकार किया है। क्या आप चाहेंगे कि आप जब कभी अपने दोस्त, रिश्तेदार या सगे-संबंधी को अपने घर पर बुलाएं तो वह नाक चढ़ाकर आपसे कहे- अरे भाई, कैसी गंदी कालोनी में मकान बनवाया है आपने। नहीं न ? अपनी इस कालोनी को साफ-सुथरा हम-तुम मिलकर ही रख सकते हैं। गंदगी होगी तो बीमारियाँ बढेंगी... बीमारियाँ बढेंगी तो आज के मँहगाई के जमाने में हमें अपनी अनेक अहम जरूरतों का गला घोंटकर डाक्टरों की जेबें भरनी पड़ेंगी।...”
हरिदा जैसे ही बीच में कुछेक पल के लिए बोलना बन्द करते, गणेसी अजीब-सी मुद्रा बनाकर ‘टुणन...टुन’ बोल उठता और सभी लोग ठठाकर हँस पड़ते।
परन्तु, हरिदा इस सबसे बेअसर रहते और उनका कहना जारी रहता, “और भाइयो, गंदगी से बचने के लिए हमें-तुम्हें मिलकर ही उपाय करने होंगे। इस अन-अप्रूड कालोनी में सरकार तो कुछ करने से रही। हमें ही अपनी गलियों में नालियों का निर्माण करना होगा, ताकि हमारे घरों का बेकार पानी यहाँ-वहाँ फैलकर गंदगी न फैलाए।”
“पर नालियों का पानी जाएगा कहाँ ?” कोई प्रश्न करता।
“कालोनी के बाहर गंदे नाले में... और कहाँ।”
“इसके लिए रुपया कहाँ से आएगा ?” फिर प्रश्न उछलता।
“चंदा करके... हर घर इसके लिए चंदा देगा।” हरिदा का उत्तर होता। चंदे के नाम पर चुप्पी व्याप जाती। लोग चुपचाप इधर-उधर खिसकने लगते।
पर हरिदा मायूस नहीं हुए। वह तो दृढ़-संकल्प किए थे। उन्हें भीतर-ही-भीतर विश्वास था कि एक दिन वह लोगों को इसके लिए तैयार कर ही लेंगे। वह चंदे के लिए स्वयं घर-घर गए। कुछ का सहयोग मिला, कुछेक ने टका-सा जवाब दे दिया। कुछ ने चंदा हड़प जाने वालों के किस्से सुनाकर उन्हें बुरा-भला भी कहा। पर हरिदा ने बुरा नहीं माना। वह तो ठान बैठे थे। एक दिन में पहाड़ नहीं खोदा जा सकता, यह वह अच्छी तरह जानते थे। यह कार्य धीमे-धीमे ही होगा। लोगों को समझाना होगा, विश्वास दिलाना होगा। यह सब वह अपने लिए ही नहीं कर रहे हैं, इसमें सबका ही हित है।
कुछ दिन की दौड़-धूप के बाद हरिदा का साथ कुछ लोगों ने देना आरंभ कर दिया तो उन्हीं की देखादेखी अन्य लोग भी आगे आए। कालोनी के आठ-दस घरों को छोड़कर, सभी ने नालियों के निर्माण हेतु चंदा दिया। एकत्र हुए चंदे के पैसों से कालोनी में नालियों का निर्माण हुआ तो जहाँ-तहाँ फैले पानी से लोगों को निजात मिली।
इस छोटी-सी सफलता से हरिदा प्रसन्न हुए। कुछ उत्साह भी बढ़ा। अब उन्होंने आगे के कार्यक्रम निश्चित किए। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेर और जहाँ-तहाँ उगे झाड़ों को साफ करना था। यह अकेले व्यक्ति का काम नहीं था, इसके लिए भी कालोनी के लोगों का सहयोग अपेक्षित था। यह कार्य श्रमदान के जरिए ही पूरा हो सकता था। इन्हीं दिनों, स्कूल-कालेज में छुट्टियाँ थीं। हरिदा ने कुछ छात्रों और कुछ लोगों की मदद से एक दिन ‘सफाई अभियान’ शुरू कर दिया। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेरों को साफ किया गया। गलियों के गड्ढ़े भरे गए। झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंका गया। गलियों में मिट्टी डालकर उन्हें ऊँचा किया गया।
हरिदा मन ही मन बेहद खुश थे। खुश भी और उत्साहित भी। उन्होंने जो बीड़ा उठाया था, वह आहिस्ता-आहिस्ता पूरा हो रहा था। सर्वप्रिय कालोनी को सर्वप्रिय बनाकर ही दम लेंगे, वह मन-ही-मन सोचते। पर यह तभी संभव था जब कालोनी का हर व्यक्ति उनका साथ दे, अपनी जिम्मेदारी को समझे। कालोनी के आठ-दस लोग जो असहयोग की मुद्रा अपनाए थे, हरिदा चाहते थे कि वे भी उनका साथ दें। असलम, गणेसी, दूबे, हरिहर और मंगल आदि को हरिदा जब-तब समझाने की कोशिश करते, परंतु वे तो जैसे चिकने घड़े थे। कुछ असर ही नहीं होता था उन पर !
असलम और गणेसी तो अपनी-अपनी तरकश में हरिदा के लिए व्यंग्य बाण सदैव तैयार रखते और अवसर पाते ही हरिदा की ओर चला देते। दरअसल, कालोनी में यही दो व्यक्ति थे जिनकी शह पर कुछ अन्य लोग असहयोग की मुद्रा अपनाए थे।
गणेसी ने पिछले ही वर्ष मकान बनाया था और एक छोटा कमरा अपने पास रखकर शेष किराये पर उठा दिया था। सारा दिन सुरती फांकने और इधर-उधर बैठकर वक्त काटने के अलावा उसके पास कोई काम न था। असलम जिसने गणेसी के पड़ोस में मकान बनाया था, गणेसी का दोस्त था। असलम के कोई औलाद नहीं थी। पत्नी बहुत पहले मर चुकी थी। दूसरी शादी उसने की नहीं। लेकिन गणेसी की तरह उसने अपना मकान किराये पर नहीं चढ़ाया था। पूरे मकान में अकेला ही रहता था। प्रायः वह कहता, ”मेरी कौन-सी आस-औलाद है। शहर में रहता हूँ तो बना लिया मकान। भाई का परिवार गाँव में खेती-बाड़ी करता है। गाँव छोड़कर वे शहर आना नहीं चाहते। भतीजा-भतीजी हैं, बड़े होकर रहना चाहेंगे तो रह लेंगे।”
एक दिन असलम ने हरिदा से पूछा, “विलफेयर बाबू, कालोनी खातिर बड़ा काम कर रहे हैं आप। कौन पार्टी से हैं आप ?”
“पार्टी ?” हरिदा असलम के प्रश्न पर चौंके लेकिन तुरंत ही कहा, “नहीं, असलम भाई, मेरी कोई पार्टी-वार्टी नहीं है।”
“फिर कोई सवारथ होगा ?”
“स्वार्थ ? कैसा स्वार्थ !” दूसरा प्रश्न भी चैंकाने वाला था लेकिन हरिदा ने फिर हँसते हुए जवाब दिया, “मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, असलम भाई। बस, स्वार्थ अगर है तो इतना कि जहाँ जिस कालोनी में हम-तुम रहते हैं, वह साफ-सुथरी हो… लोग आपस में मिलकर इसके विकास के लिए कार्य करें।”
“बिन सवारथ आजकल कोई जन-सेवा नहीं करता, विलफेयर बाबू ! आप ठहिरे रिटायर्ड आदमी ! आप जैसा आदमी पहले छोटी-मोटी कालोनी से ही अपनी पुलिटिक्स शुरू करता है। नेता बनने के आजकल बहुत फायदे हैं न !... जहाँ थोड़ी-बहुत लोकप्रियता मिली नहीं कि बस, कउंसलर-फउंसलर के सपने देखने लगते हैं। अब ई पुलिटिक्स साली लोगों का दिमाग खराब किए है, लोगों का क्या कसूर ?”
हरिदा एकाएक ठहाका लगाकर हँस पड़े, असलम की बातों पर। बोले, “अरे, नहीं असलम भाई, मेरा कोई इरादा नहीं है, काउंसलर आदि बनने का।”
“शुरू में सब इहि कहत हैं विलफेयर बाबू...” गणेसी सुरती फाँकते हुए बोला और फिर उसने सुरती वाली हथेली असलम की ओर बढ़ा दी। असलम ने चुटकी भरी और उसे निचले होंठों में दबाकर बोला, “अगर चुनाव-उनाव लड़ने का इरादा नहीं तो काहे दौड़-धूप किए रहते हो ?” असलम ने समझाने के लहजे में कहना प्रारंभ किया, “देखिए विलफेयर बाबू, आज की दुनिया में अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए। सरबप्रिय को सरबप्रिय बनाने का ठेका आपने काहे उठा रखा है ?”
हरिदा समझ रहे थे कि इतनी आसानी से ये लोग समझने वाले नहीं हैं। बोले, “ठेका लेने की बात तो मैं नहीं कहता, लेकिन आप लोग साथ दो या न दो, पर मैं तो सर्वप्रिय के लिए जो बन पड़ेगा, करता रहूँगा। मैंने इस कालोनी में आप लोगों से बहुत पहले मकान बनवाया था, तब जब यहाँ जंगल-बियाबान था।... बस, समझ लो, इस कालोनी से लगाव हो गया है मुझे।”
तभी, देश में चुनाव के दिन आ गए। वोटों के चक्कर में सरकार ने अनअप्रूड कालोनियों को पास करना शुरू कर दिया। सर्वप्रिय भी पास हो गई। कालोनी के लोग खुश थे। सबसे अधिक हरिदा।
चुनाव के बाद कालोनी के कुछ लोगों ने वेलफेयर एसोसिएशन बनाने का प्रस्ताव रखा तो दस-बारह लोगों को छोड़कर सभी तैयार हो गए। एसोसिएशन बनी। एसोसिएशन के लिए अध्यक्ष, महामंत्री तथा सदस्यों का चुनाव किया गया। पांडेय जी को अध्यक्ष और हरिदा को महामंत्री पद हेतु चुना गया।
असलम ने हरिदा को बधाई दी और साथ ही कहा, ”आ गए न विलफेयर बाबू लाइन पर... हमने तो पहले ही कहा था, ये पार्टी पुलिटिक्स का नशा यूँ ही नहीं उतरता। आज एसोसिएशन के महामंतरी बने हैं, कल कुछ और भी बन जाइएगा। लगे रहिए बस लाइन पर।”
हरिदा असलम के व्यंग्य पर नाराज नहीं हुए। बोले, “असलम भाई, मुझे पोलिटिक्स-वोलिटिक्स कुछ नहीं करनी है। मैं तो कालोनी के लोगों और कालोनी की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता हूँ, बस।”
और सच में, सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के महामंत्री बनने के बाद तो हरिदा और अधिक सक्रिय हो उठे। कमेटी के दफ्तर में आए दिन उनका चक्कर लगने लगा। अब वे कई एप्लीकेशन्स लिखकर ले जाते और पुरानी दी गई एप्लीकेशन्स के बारे में तहकीकात करते कि क्या हुआ ? लोगों के छोटे-मोटे काम करवाने में सदैव आगे रहते। किसी को बिजली का कनेक्शन नहीं मिल रहा तो उसको संग लेकर बिजली दफ्तर में जा रहे हैं। किसी को सीमेंट मिलने में दिक्कत हो रही है तो उसे सीमेंट दिलवाने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। अखबारों में सर्वप्रिय कालोनी की समस्याओं पर पत्र छपवा रहे हैं। उनकी लिखा-पढ़ी से कालोनी में बिजली के खंभे लगे, कच्ची सड़कें पक्की बनीं और सार्वजनिक “शौचालय बने। नगर निगम ने कालोनी में एक प्राथमिक पाठशाला और एक डिस्पेंसरी खोलने की घोषणा भी कर दी। यह सब हरिदा की लगन और तत्परता से हुआ।
कालोनी के लोग भी आदर करते थे वेलफेयर बाबू का। किसी के घर पर बच्चे का मुंडन है या जन्म दिन, लड़की की शादी है या लड़के की, अखंड-पाठ या भजन-कीर्तन, वेलफेयर बाबू को अवश्य याद किया जाता और वह सहर्ष सम्मिलित भी होते। पहुँचने में जरा देरी क्या होती कि लोग ‘वेलफेयर बाबू नहीं आए’, ‘वेलफेयर बाबू को नहीं बुलाया क्या ?’ आदि प्रश्न करते दिखाई देते।
अब कालोनी में न पानी की दिक्कत थी, न बिजली की। बस-सेवा भी सुबह-शाम के अलावा अब दिनभर रहने लगी थी।
हरिदा शाम के समय घर के बाहर खड़े थे कि असलम सामान उठाए बस-स्टैंड की ओर जाता दिखाई दिया।
“क्यों असलम भाई, कहाँ की तैयारी हो गई ?”
“गाँव जा रहे हैं विलफेयर बाबू, दो महीने के लिए।” असलम ने रुककर जवाब दिया, “आजकल आप बहुत व्यस्त हैं, विलफेयर बाबू। लगे रहिए... नगर निगम के अब की चुनाव हों तो खड़े हो जाइएगा आप भी। खुदा कसम, जरूर जीतिएगा आप।” कहकर असलम बस-स्टैंड की ओर बढ़ गया। हरिदा खड़े-खड़े सोचते रहे असलम के विषय में - कैसा आदमी है यह भी !
जब से कालोनी के निकट एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट बने हैं, मार्किट आदि की सुविधा के अलावा अन्य कई सुविधाएं भी कालोनी वालों को मिलने लगीं। यही नहीं, चार-पाँच साल पहले शहर से कटी हुई यह कालोनी अब शहर से बिलकुल जुड़-सी गई थी।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन हरिदा के ऊपर जैसे गाज गिरी। वह स्तब्ध रह गए। वह समझ ही नहीं पाए एक पल के लिए कि यह उनके साथ क्या होने जा रहा है !... ऐसा कैसे हो सकता है ?... फिर स्वयं से ही जैसे बोले उठे, “ऐसा कैसे हो सकता है ?... अंधेरगर्दी है क्या ? वह शहर के विकास प्राधिकरण के आफिस जाएंगे और पूछेंगे- यह कैसे हो सकता है ?”
कालोनी के जिस किसी व्यक्ति ने भी सुना, हत्प्रभ रह गया- ‘यह वेलफेयर बाबू के संग क्या हुआ ?’ हर कोई दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया, यह जानने के लिए कि जो कुछ उन्होंने सुना है, क्या वह वाकई सच है ?
हरिदा को शहर विकास प्राधिकरण की ओर से नोटिस मिला था। उनका मकान कालोनी के नक्शे से बाहर दर्शाया गया था। और जिस जमीन पर वह बना था, उसे सरकारी जमीन घोषित किया गया था। नोटिस में कहा गया था कि एक माह के भीतर वह अपना इंतजाम दूसरी जगह कर लें अन्यथा मकान गिरा दिया जाएगा।
हरिदा और उनकी पत्नी नोटिस पढ़कर भूख-प्यास सब भूल बैठे। यह क्या हो गया? बैठे-बिठाये ये कैसा पहाड़ टूट पड़ा उन पर ? हरिदा भीतर से दुःखी और परेशान थे- यह सरासर अंधेरगर्दी और अन्याय है। पाँच साल के बाद उन्हें होश आ रहा है कि यह सरकारी जमीन है। नक्शे से बाहर दिखा दिया उनका मकान ! कहते हैं, एक माह तक खाली कर दूसरी जगह चले जाओ। मकान गिराया जाएगा।
“हुंह ! गिराया जाएगा। कैसे गिरा देंगे ! पूरी कालोनी खड़ी कर दूँगा अपने मकान के आगे।” वह गुस्से में बुदबुदाने लगे।
शाम को वह मकान की छत पर टहलते रहे और दूर-दूर तक बने कालोनी के मकानों को देखते रहे। उनका मकान कालोनी के पूर्वी कोने में है। एक तिकोनी खुली जगह में उनका ही अकेला मकान है। उनके मकान और कालोनी के बीच एक पतली सड़क है। सामने ही हाउसिंग सोसायटी के फ्लैट बने हैं। बीच की खाली जगह पर शहर विकास प्राधिकरण सिनेमा-कम-शापिंग सेंटर बना रहा है। टहलते हुए वह फिर बुदबुदाने लगे- ‘पूरी कालोनी में एक उन्हीं का मकान दिखा उन्हें ! वह भी देखते हैं, कैसे गिराते हैं उनका मकान !”
अंधेरा घिरने लगा तो वह नीचे उतर आए। नीचे आकर चुपचाप बिस्तर पर लेट गए। दिमाग में जैसे कोई चकरी-सी घूम रही थी।
इस बीच सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के कुछ लोगों को संग लेकर वह कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े-फिरे। शहर विकास प्राधिकरण के अधिकारियों से मिले। चेयरमैन से भी। अपने इलाके के काउंसलर और एम.पी. के पास जाकर भी गुहार लगाई। जहाँ-जहाँ जा सकते थे, गए। पर घर लौटकर उन्हें लगता था कि उनकी यह दौड़-धूप सार्थक नहीं होने वाली।
इलाके के काउंसलर और एम.पी. का दबाव पड़ने से प्राधिकरण ने हरिदा को मुआवजा देना स्वीकार कर लिया तो वह बौखला उठे, “मुआवजा देंगे ! अरे, छह सौ रुपये गज से भी ऊपर का रेट है यहाँ और तुम दोगे मुझे बहत्तर रुपये गज के हिसाब से मुआवजा ! मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा मुआवजा... मैं लडूंगा... इस अंधेरगर्दी के खिलाफ लड़ूंगा।“
अब हरिदा को न खाना अच्छा लगता, न पीना। रात-रात भर जागकर न जाने क्या सोचते रहते। पत्नी अलग दुःखी थी। वह कहती, “दुःख के पहाड़ किस पर नहीं टूटते। पर क्या कोई खाना-पीना छोड़ देता है ? खाओगे-पिओगे नहीं तो लड़ोगे कैसे ?” कालोनी के लोगों को उनसे पूरी सहानुभूति थी। वे उनके सम्मुख सरकार की आलोचना करते। पांडे जी और कुछ अन्य लोगों ने हरिदा को मुआवजा ले लेने की सलाह दी। उनका विचार था कि सरकार से लड़ा नहीं जा सकता। उन्हें दूसरी जगह प्लाट लेकर मकान बना लेना चाहिए, या बना बनाया खरीद लेना चाहिए। इसी कालोनी में मिल भी जाएगा, ठीक रेट पर।
पत्नी समझाती, “आजकल रिश्वत का बोलबाला है। अफसरों को कुछ दे-दिलाकर खुश कर दो तो शायद...।” चुपचाप सुनते रहते हरिदा। ‘हाँ-हूँ’ तक नहीं करते।
चिंता और भय के तले दिन व्यतीत होते रहे और एक मास पूरा हो गया। फिर दूसरा। बीच-बीच में हरिदा प्राधिकरण आफिस में जाकर पता करते रहे- यही मालूम होता कि उनके प्रार्थनापत्र पर विचार किया जा रहा है, लेकिन उम्मीद बहुत कम है।
धीरे-धीरे तीन माह बीत गए तो हरिदा ने सोचा, शायद उनके प्रार्थनापत्र पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया गया है। इसीलिए मामला ठंडा पड़ गया है और उनका मकान गिराने का इरादा सरकार ने छोड़ दिया है। कालोनी के लोग भी हरिदा को तसल्ली देते- “अब कुछ नहीं होगा, विलफेयर बाबू ! होना होता तो अब तक दूसरा नोटिस आ गया होता या आ गए होते वे मकान गिराने।”
धीरे-धीरे हरिदा चिंतामुक्त होने लगे थे कि एक दिन दलबल के साथ प्राधिकरण के अधिकारी आ पहुँचे- दैत्याकार बुलडोजर लेकर ! सुबह का वक्त था। हरिदा नाश्ता करके उठे ही थे। प्राधिकारण के अधिकारियों ने आगे बढ़कर उन्हें घंटेभर की मोहलत दी, सामान निकालकर बाहर रख लेने के लिए। पर हरिदा तो स्तब्ध और सन्न् रह गए थे। फटी-फटी आँखों से वह अपने मकान के बाहर खड़ी भीड़ को देखते रहे। कुछ सूझा ही नहीं, क्या बोलें, क्या करें। चीखें-चिल्लाएं या रोएं। पत्नी घबराहट और भय में रोने- चिल्लाने लगी थी और बदहवास-सी कभी बाहर आती थी, कभी घर के अंदर जाती थी। पुलिस वालों ने घेरा बना रखा था। कालोनी के किसी भी आदमी को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था। पांडे जी, प्रकाश बाबू और शंकर ने आगे बढ़कर विरोध किया तो अधिकारियों ने कहा, “हमने इन्हें पहले ही काफी समय दे दिया है। यह सरकारी जमीन है। मकान तो अब गिरेगा ही। आप हमारे काम में दखल न दें और हमें अपना काम करने दें।” यही नहीं, पुलिस वालों ने उन्हें खदेड़कर घेरे से बाहर भी कर दिया था।
अधिकारीगण हरिदा को फिर समझाने लगे। वे कुछ भी नहीं सुन रहे थे जैसे। संज्ञाशून्य से बस अपलक देखते रहे।
घंटेभर की अवधि समाप्त होते ही अधिकारियों ने पुलिस की मदद से सामान बाहर निकालना आरंभ कर दिया। हरिदा की पत्नी छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा सामान निकालकर बाहर खुले में रख दिया गया। पुलिस वालों ने हरिदा और उनकी पत्नी को मकान से बाहर खींच लिया। एकाएक हरिदा चीख उठे, “नहीं, तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते। पहले मुझ पर चलाओ बुलडोजर ! फिर गिराना मेरा मकान !... जीते-जी नहीं गिरने दूंगा मैं अपना मकान।” और वह बुलडोजर के आगे लेट गए। सिपाहियों ने उन्हें उठाकर एक ओर किया तो वह फिर चीखने-चिल्लाने लगे, “मैं तुम सबको देख लूँगा... मैं हाईकोर्ट में जाऊँगा... तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते।” और फिर वह विक्षिप्त -से होकर गालियाँ देने लगे। पत्थर उठाकर फेंकने लगे। सिपाहियों ने उन्हें आगे बढ़कर दबोच लिया।
हरिदा चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे लेकिन उनकी चीख-चिल्लाहट नक्कारखाने में तूती की आवाज-सी अपना दम तोड़ रही थी। वह अवश थे, असहाय थे। कोई साथ नहीं दे रहा था। कोई दीवार बनकर खड़ा नहीं हो रहा था, इस अन्याय के विरुद्ध ! पूरी कालोनी शांत थी, हलचल विहीन ! डरी-डरी, सहमी-सी। बस, पुलिस घेरे के बाहर खड़ी तमाशा देखती रही।
देखते-ही-देखते, बुलडोजर ने हरिदा का मकान धराशायी कर दिया। ‘यह जमीन सरकारी है’ का बोर्ड भी गाड़ दिया गया वहाँ पर।
तभी, असलम गाँव से लौटा था। बस से उतरा तो वेलफेयर बाबू के घर के बाहर भीड़ देखकर हैरत में पड़ गया। आगे बढ़कर देखा तो अवाक् रह गया वह। वेलफेयर बाबू का मकान मलबे में तब्दील हो चुका था। पुलिस और प्राधिकरण के अधिकारी अब जाने की तैयारी में थे। असलम ने देखा, वेलफेयर बाबू की पत्नी रो-रोकर बेहाल हो रही थी और कह रही थी, “देख लिया, देख लिया आपने ! बड़ा गुमान था न आपको कालोनी के लोगों पर ! कहते थे- दीवार बनकर खड़े हो जाएंगे। अरे, कोई नहीं आता, मुसीबत की घड़ी में आगे... सब दूर खड़े होकर तमाशा देखते रहे... हे भगवान ! कहाँ जाएंगे अब हम ?” और वह मुँह में साड़ी का पल्लू दबाकर रोने लगी।
असलम ने हाथ में उठाया सामान वहीं जमीन पर रखा और वेलफेयर बाबू की पत्नी के निकट आकर बोला, “आप ठीक कहती हैं, भाभीजान ! जिन विलफेयर बाबू ने बिना स्वारथ इस कालोनी के लिए रात-दिन एक किया, जो दौड़-दौड़कर लोगों का काम करते रहे, उन्हीं का मकान इनके सामने टूटता रहा और ये लोग चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देखते रहे। कितने मतलबी और स्वारथी हैं इह लोग...”
हरिदा मकान के मलबे के पास खड़े होकर पथराई आँखों से अपनी तबाही का मंजर देख रहे थे और सोच रहे थे- यह कैसा अंधड़ था जो अभी-अभी आया था और उनका सबकुछ तहस-नहस कर गया।
असलम ने आगे बढ़कर पीछे से उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “मेरा मकान खाली पड़ा है, विलफेयर बाबू ! चलिए, जब तक जी चाहे, चलकर रहिए।”
हरिदा ने मुड़कर असलम की ओर देखा। एक पल टकटकी लगाए देखते रहे पनीली आँखों से असलम की ओर। सहसा, उनके होंठ कांपे, नथुने हिले और वह वहीं ईंटों के ढेर के पास बैठ फूट-फूटकर रोने लग पड़े।
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” में संग्रहित )
8 टिप्पणियां:
just read this story, very painful. is khanee ne bhut sarey sval uthye hain, agar smajsevek hone ke ye keemat chukanee pde to koee bhee insan smaj sudhark nahee bnega. bhut smvednsheel or marmik story hai, manav mulyon ko byan kertee ek bhut achee rachna"
Regards
कहानी बहुत अच्छी लगी। संवेदनशील और समाज की परतों को आहिस्ता से उघाड़कर सच दिखाती हुई।
खूब मेहनत कर रहे हो. इस कहानी के लिए बधाई.
चन्देल
वेलफ़ेयर बाबू- कहानी अत्यन्त मार्मिक है। दुनियाँ की यही रीति है।
कर भला होगा भला, अब ये पुरानी बात है।
कुछ भला होता नहीं, करके भलाई देख ली ।।
हाँ, असलम का मन-परिवर्तन उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह सन्तोष का विषय है।
इस सहज स्वाभाविक सुन्दर कहानी के लिये बधाई ।
शकुन्तला बहादुर
shakunbahadur@yahoo.com
स्रजन यात्रा देखकर ख़ुशी हुई। आपकी कहानियां आधुनिक संवेदना का जीवंत दस्तावेज़ हैं।
Devmani Pandey
devmanipandey@gmail.com
Ap likh hi nahi rahe hain, khub man se likh rahe hain. Samkalin sarokar apke sahitya men dikh rahe hain...sadhuvad.
subhash ji aapki kahani padhi---vartman samaj ki kroor sachchai se roobaroo hona pada---kintu aslum ki samvedansheelata ne usake bhitar ke ensaan se hame parichit karaya---aapne aaj ke samaj ki visangation va usase janm lene vaali pida ke bich ek sahirday ensaan ki taqlifon ka jayaja liya, esake liye shukragujar hun.
ranjana srivastava, siliguri
मंगलमय दीपावली
शुभ हो
जीवन में
सुख ही सुख हो
यही है कामना
दीपोत्सव पर
हर पल तुम्हारा
उत्सव ही उत्सव हो।
--सस्नेह
अशोक लव
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