शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहानी-13


गोष्ठी
सुभाष नीरव

वह चाहकर भी उसे मना नहीं कर सके। जबकि मदन के आने से पूर्व वह दृढ़ मन से यह तय कर चुके थे कि इस काम के लिए साफ़-साफ़ हाथ जोड़ लेंगे। कह देंगे- मदन, यह काम उनसे न होगा। उन्हें क्षमा करो। वैसे वह गोष्ठी में उपस्थित हो जाएंगे। ज़रूरत होगी तो चर्चा में हिस्सा भी लेंगे। पर पर्चा लिख पाना उनके लिए संभव न होगा। और... वह कोई आलोचक या समीक्षक भी तो नहीं हैं...
क्या इतना ही सब कुछ था उनके भीतर ?
भीतर से उठे इस प्रश्न से वह बच नहीं पाए। उन्हें अपने आपको टटोलना पड़ा। हाँ, केवल यही बातें ज़हन में नहीं थीं। कुछ और भी था। एक अहं भी। लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार करुणाकर को हिंदी साहित्य में कौन नहीं जानता ? दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं उन्होंने। दस कहानी संग्रह और छह उपन्यास छप चुके हैं उनके अब तक ! उन जैसा वरिष्ठ लेखक एक नवोदित लेखक की कहानियों पर गोष्ठी में पढ़ने के लिए पर्चा लिखे ! यही काम रह गया है क्या ? इससे अधिक तकलीफ़ उन्हें गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे शख्स यानी डॉ. भुवन से थी। डॉ. भुवन के पिछले इतिहास को करुणाकर बखूबी जानते थे। डॉ. भुवन की साहित्य में देन ही क्या है ? अवसरवादिता उनमें कूट कूटकर भरी है। चाटुकारिता और तिकड़मों के बल पर यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के हैड और कुछेक पुरस्कार और सलाहकार समितियों के सदस्य बने बैठें हैं। उस पर दंभ यह कि उनसे बड़ा साहित्यकार, विद्वान कोई है ही नहीं।... वह ऐसे व्यक्ति की अध्यक्षता में एक नए लेखक की पुस्तक पर पर्चा पढ़ेंगे ?... नहीं... लोगों को कहने का अवसर मिलेगा कि करुणाकर चुक गया है इसलिए अब आलेख पाठों पर उतर आया है।
गोष्ठियों में जाना वह वैसे भी पसंद नहीं करते अब। पिछले दो-तीन बरसों से तो गोष्ठियों में आना-जाना छोड़ ही रखा है। तीन दशकों की अपनी साहित्यिक यात्रा में उन्होंने इन गोष्ठियों को बहुत करीब से देखा है। पूर्वाग्रहयुक्त चर्चा होती है वहाँ या फिर उखाड़ने-जमाने की राजनीति ! अधिकांश वक्ता तो लेखक की पूरी पुस्तक पढ़ कर ही नहीं आते और बोलते ऐसे है जैसे उनसे बड़ा विद्वान या साहित्य पारखी है ही नहीं। एक गुट का लेखक दूसरे गुट के लेखक को नीचा दिखलाने की कोशिश में रहता है। रचना पर बात न होकर, रचनाकार पर बातें होने लगती हैं। रचना पीछे छूट जाती है और रचनाकार आगे आ जाता है।
ये तमाम बातें थीं जो उनके दिमाग में घूम रही थीं- चक्करघिन्नी-सी। पत्नी को भी वह अपना निर्णय बता चुके थे। पत्नी की राय इस पर भिन्न थी। उनका मत था कि अगर वह मदन की पुस्तक पर पर्चा नहीं लिखना चाहते हैं तो वह कोई बहाना बना दें। कह दें कि वह बहुत व्यस्त हैं। गोष्ठी में नहीं पहुँच सकते। या फिर कह दें कि उन्हें कहीं और जाना है उस दिन।
वह पत्नी की राय से सहमत नहीं हुए। बोले, ''बहाना क्यों बनाऊँ ? स्पष्ट कह देने में क्या हर्ज़ है ?... पर्चा लिखने के लिए मैं ही रह गया हूँ क्या ?... बहुत मिल जाएंगे जो खुशी-खुशी पर्चा लिखने को राजी हो जाएंगे।''
लेकिन क्या वह स्पष्ट मना कर पाए ?... नहीं। वह ऐसा चाहकर भी नहीं कर पाए। मदन आया। आते ही उसने चरण-स्पर्श किए। उनके ही नहीं, उनकी पत्नी के भी। बैठने के पश्चात् झोले में से निमंत्रण पत्र का 'प्रूफ' निकालते हुए वह बोला, ''भाई साहब, मैंने आपका नाम साधिकार आलेख पाठ में दे दिया है। यह देखिए।'' और निमंत्रण-पत्र का प्रूफ उनकी ओर बढ़ा दिया।
''लेकिन, मदन...'' वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाए थे कि मदन बीच में ही बोल उठा, ''देखिए भाई साहब ! एक ही जनपद के होने के नाते मुझ छोटे भाई को इतना अधिकार तो आप देंगे ही, मुझे पूरा विश्वास है। आप तो जानते ही हैं, गोष्ठियों में लोग किस पूर्वाग्रह से बोलते हैं। नए लोगों को तो बढ़ते देख ही नहीं सकते। एक आप ही हैं जो कृति को पूरा पढ़कर बोलते हैं। नए लोगों के प्रति आपके हृदय में जो स्नेह है, जो भावना है, वह आज कितने अग्रज और वरिष्ठ लेखकों में है ? कहिए...''
करुणाकर इस पर निरुत्तर हो गए।
थोड़ा रुककर मदन उनकी पत्नी की ओर देखते हुए बोला, ''भाभी जी, हम तो भाई साहब को ही अपना गुरू माने हैं। कॉलेज टाइम से ही इनकी कहानियों के फैन रहे हैं हम। एक कथाकार जो गत तीन दशकों से निरंतर लिख रहा है, वह नए लेखक की कहानियों पर कुछ लिखे, यह तो नए लेखक को अपना सौभाग्य ही समझना चाहिए न ! क्यों भाभी जी ?'' बात की पुष्टि के लिए मदन ने उनकी पत्नी के चेहरे पर अपनी दृष्टि कुछेक पल के लिए स्थिर कर दी। लेकिन प्रत्युत्तर में जब वह चुप रहीं, कुछ बोली नहीं तो उसने अपनी नज़रें वहाँ से हटा लीं।
मदन के आने से पूर्व उसके भीतर क्या कुछ उमड़-घुमड़ रहा था। लेकिन अब मौन धारण किए बैठे थे वह। मदन ही बोले जा रहा था और वह सुन रहे थे चुपचाप।
''अब देखिए न, यह जो संस्था है न, जो मेरी पुस्तक पर गोष्ठी करवा रही है, उसके सचिव महोदय निमंत्रण-पत्र का मसौदा देखकर बोले कि भाई इसमें से कुछ नाम हटा दो।... तो भाई साहब, हमने भी स्पष्ट कर दिया कि चाहे कोई नाम उड़ा दो, पर करुणाकर जी का नाम नहीं हटने देंगे। चाहे गोष्ठी हो, चाहे न हो।''
इस बीच उनकी पत्नी उठकर रसोईघर में चली गईं- चाय का पानी रखने। वह चाय बनाकर लाईं तो मदन फिर शुरू हो गया, ''भाई साहब, गाड़ी का भी इंतज़ाम हो गया है। आपको ले भी जाएगी और छोड़ भी जाएगी।''
''अरे, नहीं मदन। मैं आ जाऊँगा...।'' बहुत देर की चुप्पी के बाद वह बोल पाए।
''नहीं भाई साहब ! गाड़ी का इंतज़ाम तो मैंने कर लिया है। बस, आप तैयार रहिएगा। कहाँ बसों में धक्के खाइएगा आप ?''
कुछ देर बाद, मदन हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ जाने के लिए। सहसा, उसे कुछ स्मरण हो आया। रुककर बोला, ''गोष्ठी के पश्चात् अपना आलेख मुझे दे दीजिएगा। 'साहित्य सरोकार' में छपने के लिए सुरेंद्र को दे दूँगा।''

रात का खाना खाने के बाद वह मदन की पुस्तक लेकर बैठ गए। पुस्तक दो-तीन दिन पहले ही मिल गई थी, इस सूचना के साथ कि इस पर उन्हें आलेख पाठ करना है। लेकिन, सिवाय उलट-पलटकर देखने के वह एक भी कहानी नहीं पढ़ पाए थे। अब तो पर्चा लिखना था !
पुस्तक पढ़कर करुणाकर बेहद निराश हुए। दो-एक कहानियों को छोड़कर कोई भी कहानी उन्हें छू नहीं पाई। लेखक ने अपने कहानियों में कोई नई बात नहीं कही थी। जो कथ्य उठाए गए थे, उन्हें पूर्ववर्ती लेखक पहले ही बहुत खूबसूरत ढंग से उठा चुके थे। कहानियाँ आज की कहानीधारा में कहीं भी टिकती नज़र नहीं आई उन्हें। किसी-किसी कहानी में शिल्प को लेकर उन्हें लगा, मानो लेखक ने अनावश्यक कुश्ती की हो। जिन दो-एक कहानियों ने उन्हें छुआ था, वे अपने अंत को लेकर कुछ मार्मिक हो गई थीं किंतु अपनी बुनावट में पठनीय कम, बोझिल अधिक लगीं उन्हें।
दो-एक दिन असमंजस और दुविधा की स्थिति में रहे वह। फिर, एकाएक उन्होंने निर्णय ले लिया, ''क्या ज़रूरी है कि एक कमजोर किताब पर मेहनत की जाए ?... नहीं, वह पर्चा नहीं लिखेंगे।''
पत्नी का कहना दूसरा था। उनके विचार में उन्हें एक बार वायदा कर लेने के बाद पर्चा अवश्य लिखना चाहिए। उसने अपना मत दिया, ''कहानियाँ आपको जैसी भी लगी हैं, आप वैसा ही लिखिए। खराब तो खराब, अच्छी तो अच्छी ! अब आप नहीं लिखेंगे तो मदन को बुरा लगेगा। कितना आदर करता है वह आपका !''
उन्होंने अपने निर्णय पर पुन: विचार किया। उन्हें लगा, पत्नी ठीक कहती है। उन्हें वैसा ही लिखना चाहिए, जैसी कहानियाँ उन्हें लगी हैं। इसमें लेखक का ही भला है। कहानी की समृद्ध परंपरा का उल्लेख करते हुए आज की कहानीधारा में मदन की कहानियों की पड़ताल करनी चाहिए उन्हें।
और उन्होंने ऐसा ही किया। उन्होंने रचना को सामने रखने की कोशिश की, रचनाकार को नहीं।

गोष्ठी के दिन वह तीन बजे ही तैयार होकर बैठ गए। गोष्ठी चार बजे से प्रारंभ होनी थी। साढ़े तीन तक गाड़ी को आ जाना चाहिए था। वह तब तक तैयार किए गए आलेख को एक बार बैठकर पढ़ने लगे। टाइपिंग में रहे गई अशुद्धियों को ठीक करते रहे। आलेख पांचेक पेज का हो गया था लेकिन उन्हें लगता था कि उन्होंने अपनी बात खुलकर आलेख में कह दी है। एक-एक कहानी के आर-आर गए थे वह।
साढ़े तीन हो रहे थे और गाड़ी अभी तक नहीं आई थी। वह उठकर बाहर गेट तक देखने गए और फिर लौटकर कमरे में आकर बैठ गए। पन्द्रह मिनट और बीते तो उन्हें बेचैनी होने लगी।
तभी, एक स्कूटर बाहर आकर रुका। एक दुबला-पतला-सा युवक अंदर आया और बोला, ''करुणाकर जी, मैं आपको लेने आया हूँ।''
''गाड़ी का क्या हुआ ?'' उन्होंने पूछा।
''गाड़ी अध्यक्ष जी को लेने गई है इसलिए मदन जी ने मुझे आपको लेने भेज दिया। चलिए, चलें। देर हो रही है।''
उन्होंने अपना झोला उठाया और स्कूटर के पीछे बैठ गए। चार बज चुके थे लेकिन धूप में अभी भी तेजी थी।

गोष्ठी निर्धारित समय से एक घंटा देर से आरंभ हुई, अध्यक्ष के आ जाने पर। गाड़ी से डॉ. भुवन के साथ मदन भी उतरा- प्रसन्नचित-सा।
पहला पर्चा करुणाकर जी का ही था। पर्चा पढ़ने में उन्हें कोई पन्द्रह मिनट लगे। कुछ मिलाकर उनके पर्चे का सार यह था कि अपने समग्र प्रभाव में संग्रह की कहानियाँ पाठक को प्रभावित करने में असमर्थ हैं। कहानियाँ एकरस और ऊबाऊ तो हैं ही, लेखक के सीमित अनुभव-संसार का भी परिचय कराती हैं। यथार्थ को पकड़ने वाली लेखकीय दृष्टि, जीवन और समाज सापेक्ष नहीं है। कथ्यों में विविधता का अभाव है और भाषा व शिल्प के स्तर पर संग्रह की कहानियाँ बेहद कमजोर हैं। कई कहानियाँ अपनी सरंचना तक में बिखर गई हैं और वे बेहद अप्रासंगिक भी लगती हैं। गत तीन-चार वर्षों में लिखी गई इन कहानियों को पढ़ते समय लेखक की लेखनी में कोई क्रमिक विकास या बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता बल्कि सभी कहानियाँ फार्मूलाबद्ध और एक ही ढर्रे पर लिखी कहानियाँ लगती हैं। कुछ मिला कर नए लेखक का यह पहला संग्रह लेखक के प्रति कोई उम्मीद नहीं जगाता। अंत में, अपने पर्चे में उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि लेखक आने वाले समय में अपने अनुभव को व्यापक बनाएगा और बेहतर कहानियाँ लेकर ही पाठकों के समक्ष उपस्थित होगा।
दूसरा पर्चा कु. गीतांजलि का था। अपने पर्चे में गीतांजलि ने करुणाकर के पर्चे के ठीक उलट बातें लिखी थीं। लेखक की कहानियों को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ते हुए यह सिध्द करने की कोशिश की थी कि लेखक अपने समाज, अपने परिवेश से कहीं गहरे जुड़ा है और वह जीवन के जटिल से जटिलतर होते जाते यथार्थ को ईमानदाराना ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान करने में समर्थ हुआ है। कहानियों को बेहद पठनीय बताते हए गीतांजलि ने रेखांकित करने की चेष्टा की थी कि लेखक अपने पहले ही संग्रह से नए कहानीकारों में एक अलग ही पहचान बनाता दीखता है।
करुणाकर पर्चे को सुनकर दंग रह गए। वह लेखक की कहानियों पर पर्चा था कि लेखक का आँख मूंदकर स्तुतिगान ! कहानियों को श्रेष्ठ बताने के पीछे जो तर्क दिए गए थे, वे बेहद बचकाने और पोपले लगे।
आलेख-पाठ के बाद चर्चा का दौर आरंभ हुआ। वक्ताओं की सूची में पहला नाम डॉ. वर्मा का था जो मूलत: कवि थे लेकिन आलोचना में भी खासा दख़ल रखते थे। डॉ. वर्मा ने गीतांजलि के पर्चे पर अपनी सहमति प्रकट करते हुए दो-चार बातें कहानीकार और उसकी कहानियों के पक्ष में और जोड़ीं और आग्रह किया कि इन कहानियों को वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए। लेखक को बदलते परिवेश के प्रति जागरूक और सचेत बताते हुए डॉ.वर्मा ने जोर देकर कहा कि लेखक अपनी कहानियों के जरिए यथार्थ की तहों तक पहुँचने की कोशिश करता हुआ दिखाई देता है। कहानियाँ पठनीय ही नहीं, प्रामाणिक और विश्वसनीय भी हैं और पाठकों को बाँधे रखने तथा उन्हें कहीं गहरे तक छूने में समर्थ हैं। अंत में करुणाकर के पर्चे को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि बड़े और स्थापित लेखकों को नए लेखकों के प्रति संकीर्ण और संकुचित नज़रिया नहीं रखना चाहिए।
चर्चा के दौरान, हर चर्चाकार ने करुणाकर के पर्चे को एक सिरे से खारिज किया और मदन की कहानियों को श्रेष्ठ बताया। कई वक्ताओं ने तो यहाँ तक कहा कि करुणाकर जी ने कहानी को लेकर जो पैमाना बना रखा है, उसी पैमाने से वह सभी की कहानियों को नापने की कोशिश करते हैं। यही वजह है कि उन्हें दूसरों की कहानियाँ कमजोर और खराब लगती हैं। एक अन्य वक्ता का विचार था कि करुणाकर जी ने जिन मापदंडों की अपने पर्चे में चर्चा की है, उनकी अपनी कहानियाँ उन पर पूरी नहीं उतरतीं तो फिर नए लेखक से वह क्या आशा कर सकते हैं... एक वक्ता का कथन था कि कितने आश्चर्य की बात है कि एक लेखक अपनी तीन दशकों की कथा-यात्रा में कोई क्रमिक विकास कता दिखाई नहीं देता, वही लेखक कैसे किसी नए लेखक की दो तीन वर्षों के दौरान लिखी गई कहानियों में क्रमिक विकास तलाशने लगता है।
सारी चर्चा लेखक की कहानियों पर न होकर करुणाकर के पर्चे के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई थी। हर चर्चाकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में उनके पर्चे की कड़ी आलोचना कर रहा था। लगता था, गोष्ठी कहानी-संग्रह पर न होकर करुणाकर के पर्चे पर रखी गई हो।
तभी एक वक्ता ने बोलने की अनुमति मांगी। करुणाकर ने उसकी ओर देखा और चौंक पड़े- अरे, यह तो अरुण है। एक ज़माना था, दोनों धुऑंधार लिख रहे थे और छप रहे थे। दोनों में कहानी लिखने की होड़ लगी रहती थी। दोनों कहानियों पर जमकर घंटों बहस करते थे। अरुण कह रहा था, ''मुझे अफ़सोस है कि मेरे पूर्ववर्ती वक्ता लेखक की कहानियों पर न बोलकर व्यक्तिगत छींटाकशी और आरोप आद लगाने में ही अपना समय बर्बाद करते रहे। कहानियों पर शायद वे बोल ही नहीं सकते थे। मेरे पास लेखक की पुस्तक नहीं थी, सिर्फ़ गोष्ठी की सूचना अख़बार में पढ़कर चला आया था। अत: मदन की कहानियों पर राय तो नहीं दे सकता, पर हाँ, यहाँ यह अवश्य कहना चाहूँगा कि किसी कहानी या रचना पर सभी एकमत हों, संभव नहीं है। फिर भी, किसी के मत तथा विचार से असहमति यदि कोई रखता है तो उसे अपनी असहमति शालीन ढंग से उचित और ठोस तर्क देकर ही व्यक्त करनी चाहिए और एक साहित्यिक गोष्ठी की गरिमा को बनाए रखना चाहिए।''
अरुण के बाद कोई वक्त शेष नहीं रहा था।
अध्यक्ष महोदय ने लेखक को उसकी पहली कथाकृति के प्रकाशन पर बधाई और आशीर्वाद दिया तथा कहा कि लेखक की कहानियाँ इस बात का प्रमाण है कि वह अपने समय और समाज के प्रति बेहद जागरूक है। लेखक में एक समर्थ कथाकार की पूरी संभावनाएँ निहित हैं। करुणाकर के पर्चे का उल्लेख किए बिना उन्होंने कहा कि कुछ वरिष्ठ लेखक नए लेखकों की कहानियों पर बोलते हुए यह भूल जाते हैं कि वह भी कभी नए थे। नए लेखक की पहली कृति में ही वह सभी कुछ पाना चाहते हैं जो वे अपने पूरे लेखन में नहीं दे पाते। उनकी मंशा नए लेखक को उत्साहित और प्रेरित करने की नहीं, वरन निरुत्साहित करने की अधिक होती है। किंतु एक नए और समर्थ लेखक को ऐसी आलोचना की चिंता न करते हुए सतत रचनाशील रहना चाहिए।
गोष्ठी की समाप्ति पर जलपान की व्यवस्था की गई थी। सभी दो-दो, तीन-तीन के ग्रुप में इधर-उधर छिटककर खड़े हो गए थे और आपस में बातें करने लगे थे।
अरुण और करुणाकर एक कोने में खड़े थे। कई वर्षों के बाद मिले थे दोनों। इस समय उनकी बातचीत का विषय डॉ. भुवन थे।
''तुम्हें मालूम है करुणाकर, डॉ. भुवन पर अभिनंदन ग्रंथ छापने की योजना चल रही है।'' चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने फुसफुसाते हुए कहा।
''हाँ, अब यही तो रह गया है।''
''और उस योजना में मदन जैसे लोग सक्रियता से जुड़े हैं।''
''अपने पीछे शिष्यों की भीड़ जुटाए रखना और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना तो इन्हें खूब आता है, अरुण।'' करुणाकर ने खाली प्याला एक ओर रखते हुए कहा।
एकाएक उनकी दृष्टि कुछ दूरी पर खड़े मदन और गीतांजलि पर चली गई। समीप ही, 'साहित्य सरोकार' का संपादक सुरेंद्र खड़ा था।
''बहुत अच्छा पर्चा लिखा आपने।'' सुरेंद्र गीतांजलि की तारीफ़ कर रहा था।
''जी शुक्रिया !'' गीतांजलि ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा।
''ये कहानियाँ भी बहुत अच्छी लिखती हैं। अभी हाल ही में इनकी एक बेहद अच्छी कहानी 'सत्ययुग' में छपी है। पढ़ी होगी आपने ?'' मदन बीच में ही बोल उठा।
''नहीं, नहीं पढ़ पाया। 'सत्ययुग' देखता नहीं इन दिनों।'' सुरेंद्र ने उत्तर दिया, ''आप 'साहित्य सरोकार' के लिए कहानी भेजिए न।''
''कहानी भी भेज देंगी। पहले आप इनका यह पर्चा तो छापिए, 'साहित्य सरोकार' में।'' मदन ने गीतांजलि को बोलने का अवसर ही नहीं दिया।
''ज़रूर छापूंगा। पर्चे की एक कॉपी और पुस्तक की एक प्रति भिजवा देना।''
तभी मदन को डॉ. भुवन ने बुला लिया, ''अच्छा मदन, हम चलें।''
मदन उन्हें गाड़ी तक ले गया। डॉ. भुवन का बायां हाथ मदन के कंधे पर था। गाड़ी में बैठने से पूर्व वह बोले, ''मदन, तुमने अपनी पुस्तक 'साहित्य श्री' पुरस्कार के लिए सबमिट की या नहीं ?''
''जी, अभी नहीं की।''
''कब करोगे भाई। अंतिम तिथि में बस पाँच-छह दिन ही तो शेष हैं। आज कल में सबमिट कर दो। अरे भई, तुम युवाओं के लिए ही यह पुरस्कार है। तुम लोग नहीं करोगे तो क्या हम बूढ़े करेंगे ?''
डॉ. भुवन को विदा कर जब मदन लौटा तो उसकी नज़र एक कोने में खड़े करुणाकर पर पड़ी। वह उनके समीप जाकर बोला, ''आप कुछ देर रुकिएगा भाई साहब... गाड़ी अभी दस-पन्द्रह मिनट में लौटेगी तो आपको...''
''नहीं भाई, मेरी चिंता छोड़ो। मैं चला जाऊँगा।'' करुणाकर जी का स्वर ठंडा था।
''ऐसे कैसे हो सकता है, भाई साहब !'' मदन ने जोर देकर उन्हें रोकने का प्रयत्न किया। तभी समीप खड़ा अरुण बोला, ''करुणाकर, तुम बात खत्म करके आओ। मैं बाहर सिगरेट लेता हूँ तब तक।'' और वह वहाँ से हट गया।
''थोड़ी ही देर की बात है, भाई साहब।'' अरुण के जाते ही मदन फिर करुणाकर जी को मनाने लगा।
''नहीं, नहीं जब तब गाड़ी का इंतज़ार करूँगा तब तक तो बस भी मिल जाएगी मुझे। तुम चिंता न करो, अरुण मेरे साथ है। चढ़ा देगा बस में।'' कहते हुए वह धीमे-धीमे उस ओर डग भरने लगे जिस ओर अरुण गया था।
उनके हटते हुए मदन को कुछ लोगों ने घेर लिया था और उसे गोष्ठी के सफल होने की बधाइयाँ देने लगे थे।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )

4 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

'गोष्ठी' कहानी आज की प्रायोजित गोष्ठियों की पोल खोलती है ।बहुत अच्छी कहानी है ।जुगाड़ू लेखकों को आईना दिखाती है । अच्छे लेखक नेपथ्य में धकेले जा रहे हैं और इस तरह के लेखक अब ज़्यादा उग आए हैं।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

बेनामी ने कहा…

kahanee bahut sundar hai our yathrth ke baut nazdeek; iseese der tak goonj chhor jaatee hei. Badhaee sweekar karen.
Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com

बेनामी ने कहा…

GOSTHI KAHANI SAMAY KE YATHHARTHH KO HAMARE SAMNE RAKHTI HAI.SAHITYA ME JO CHAL RAHA HAI,USI KA AAENA HAI GOSTHI.HAME SAHITYA KE CHHAL-CHHDM SE ALAG HATKAR SAMAJOPAYOGI RACHNAAON KO MAHTAV DENA CHAAHIYE.AAPNE VISAY KE CHUNAV KE JARIYE SAHITYA KE VARTMAN SACH KI OR ESHARA KIYA HAI. BAHUT-2 SUBHKAMNAAYEN
RANJANA SRIVASTAVA, SILIGURI

Ila ने कहा…

"गोष्ठी" कहानी पढ़ी। इस विषय पर इतनी यथार्थ वादी कहानी अब तक नहीं पढ़ी थी।
इला