गुरुवार, 29 जनवरी 2009

कहानी-14



लुटे हुए लोग
सुभाष नीरव

किसी फैसले पर पहुँचने की ऊहापोह में आधी रात जाग कर गुजारने के बावजूद सुबह उनकी आँख कुछ जल्दी ही खुल गई। रात में लिए गए निर्णय का ख़याल आते ही वह तत्काल उठ खड़े हुए।
एक्सीडेंट के बाद जब से पत्नी चारपाई से लगी है, घर के सभी छोटे-बड़े काम वही किया करते हैं। झाडू-पौचा, घर की साफ़-सफाई, बर्तन माँजने और कपड़े आदि धोने से लेकर खाना बनाने तक का काम।
कॉलोनी में पानी की किल्लत बारहों मास रहती है। ग्रीष्म में कुछ अधिक ही। केवल सुबह के वक्त ही पानी आता है। वह भी बहुत कम समय के लिए। ऊपर से प्रैशर इतना कम कि लोगों के बहुत-से पानी वाले काम रह ही जाते हैं। फिर अगर बहुत ज़रूरी हो तो बारह नंबर ब्लॉक के पॉर्क में लगे इकलौते हैंड-पम्प से पानी भरकर लाओ।
अन्य लोगों की तरह उनकी भी सुबह उठते ही सबसे पहली चिंता दिन भर के लिए पानी स्टोर कर लेने की हुआ करती है। बुढ़ापे के कारण हैंड पम्प से पानी खींचना और भरी हुई बाल्टियों को आधा किलोमीटर दूर से ढोकर लाना अब उनके बस में नहीं।
उठकर उन्होंने सबसे पहले नल खोला। पानी अभी आया नहीं था। नल के नीचे बाल्टी रख वह बाहर गली में आ गए। ताजी हवा का झोंका उन्हें अच्छा लगा। सोचा, गली में थोड़ा आगे तक घूम आएँ। तभी उन्हें लगा, नल सूँ-सूँ कर रहा है। उन्होंने घूमने के विचार को वहीं छोड़ा और गुसलखाने की ओर बढ़े। कुछ ही देर में नल से पानी टपकने लगा।
आज भी सर्वप्रथम उन्होंने बाल्टियों से एक ड्रम भरा, पाँच लीटर की कैनी भरी और दोनों बाल्टियों को भर लेने के पश्चात् ही उन्होंने रात के जूठे पड़े बर्तन माँजकर धोए। पानी का क्या भरोसा, कब बीच में बन्द हो जाए ! दो तीन जोड़े कपड़े उनके और पत्नी के उतरे रखे थे। उन्हें भी फाटाफट धोया और फिर लगे हाथ नहा भी लिए।
तब तक पत्नी भी जाग गई थी। उन्होंने उसे सहारा देकर उठाया और नित्य-कर्म से फारिग कराकर, मंजनादि कराया आर पुन: चारपाई पर लाकर लिटा दिया। इसके बाद स्टोव जलाकर पत्नी के लिए दोपहर का भोजन तैयार करने लगे।
आड़ी-तिरछी रोटियाँ सेंकते हुए उनके जेहन में अतीत की किताब के पन्नों ने खुद-ब-खुद उलटना-पलटना आरंभ कर दिया ...
... न जाने कितने देवी-देवताओं, पीरों-मजारों के सम्मुख माथा टेकने और मनौतियाँ माँगने के बाद सुरेश पैदा हुआ था। तीन लड़कियों के बाद एक बेटा! सुरेश के बचपन से जुड़ी अनेक बातें चलचित्र की भाँति उनकी आँखों के आगे विचरने लगीं।
अकस्मात्, उन्हें लोहड़ी के दिन याद हो आए।
लोहड़ी के अगले दिन, एक रस्म के अनुसार जब वे सुरेश को मूली के साथ तिल लगाकर चखने के लिए कहते तो वह तुरंत खुशी-खुशी तैयार हो जाया करता। मूली के साथ तिलों को लगाकर चखने से पूर्व जब वह पूछता- ''तिल मूली चक्खाँ ?'' तो पति-पत्नी की खुशी का ठिकाना न रहता और वे भावविभोर-सा होकर उत्तर देते, ''चख !'' फिर पुन: मूली में तिल लगाकर मुँह में डालने से पहले वह पूछता, ''माँ-पिऊ रक्खाँ ?'' तो वे भीतर तक एक अव्यक्त सुख से सराबोर होकर मुस्कराते हुए कहते, ''रख !'' यह प्रक्रिया तीन बार दोहराई जाती और वे सुरेश को देख-देखकर निहाल होते रहते।
बचपन में माँ-बाप को संग रखने की बात पूछने वाला बेटा आज उनसे अलग रहता है। दिल्ली शहर में अपनी पत्नी और बच्चों के संग। सरकारी फैक्टरी में मामूली-से वर्कर के तौर पर भट्ठियों में लोहा गलाते-गलाते, अपने बच्चों के लिए उन्होंने अपना जीवन भी गला डाला था। एक के बाद एक तीन लड़कियों की शादी कर वे इतना टूट गए थे कि सुरेश की शादी के लिए कुछ भी पल्ले न बचा था। लेकिन सुरेश का सरकारी नौकरी पर लगना, उनके मृतप्राय: से उत्साह को पुनर्जीवित कर गया था। उन्हें लगने लगा था कि अब उनके दिन भी फिरेंगे। ईश्वर ने उनकी भी सुन ली। अब बेटा कमाएगा और वे बूढ़ा-बूढ़ी बैठकर खाएंगे। पर आदमी जैसा सोचता है, क्या वैसा उसे मिल भी जाता है ?
तवे पर जलती रोटी को उठाते हुए उनकी उँगलियों की पोरें जल उठीं। एक गहरा नि:श्वास लेकर वे बुदबुदाये, ''जो भाग्य में लिखा है, वही तो होना है !''
बनी हुई दाल और रोटियों को ढक कर एक ओर रखने के बाद उन्होंने कुछ ब्रेड सेंकीं और चाय का पानी स्टोव पर चढ़ा दिया। वहाँ से उठने से पूर्व उन्होंने स्टोव मद्धम किया और रसोई से निकलकर कमरे में आ गए। खड़े-खड़े आले में रखी अलार्म-घड़ी पर उन्होंने नज़र डाली। समय जानने के लिए उन्हें कुछ आगे बढ़ना पड़ा क्योंकि घड़ी का डॉयल पीला पड़ चुका था और उस पर खुदे हुए नंबर भी धुँधले पड़ गए थे। इस पुरानी अलार्म घड़ी से भी अनेक यादें जुड़ी हुई थीं। उन्होंने ठीक से याद करने की कोशिश की कि सुरेश तब कौन-सी कक्षा में था, जब वह उसके लिए न जाने कितनी ज़रूरतों का गला घोंट कर बचाए गए पैसों से अलार्म घड़ी खरीद कर लाए थे। शायद छठी या सातवीं कक्षा में रहा होगा वह। घड़ी के बिना सुरेश को सुबह उठने में दिक्कत होती थी और वह अक्सर ही स्कूल पहुँचने में लेट हो जाता था। अलार्म घड़ी आ जाने पर सबसे अधिक खुशी सुरेश को ही हुई थी। रात को सोने से पहले वह उसमें सुबह पाँच बजे का अलार्म लगा दिया करता।
वे फिर से पुरानी यादों की गिरफ्त में फँसते जा रहे थे, अत: उन्होंने खुद को संभाला और तैयार होने लगे। उन्हें तैयार होता देख चारपाई पर लेटी पत्नी ने प्लास्टर चढ़ी अपनी दाहिनी बाजू को अपने बायें हाथ का सहारा देते हुए बेहद सावधानीपूर्वक ऊपर उठाया और उठकर बैठ गईं। कुछेक पल उनकी ओर देखने के बाद पूछा, ''सुरेश के यहाँ जा रहे हो ?''
पत्नी के प्रश्न को सुनकर उन्होंने उत्तर देने में कोई जल्दी नहीं मचाई। निवार वाले पुराने पलंग के नीचे से अपने बूट ढूँढ़े, उन्हें झाड़ा-पोंछा और पत्नी के पास बैठकर पहनने लगे। बूटों के तस्में बाँधते हुए बोले, ''बच्चों की दो महीने के छुट्टियाँ भी खत्म होने को आईं, आया ही नहीं बच्चों को लेकर।'' वेदनापूर्ण स्वर में गहरी उदासी भी मिली हुई थी।
''हाँ, महीनों हो जाते हैं, पोते-पोतियों का मुँह देखे। उनके आने से घर में रौनक आ जाती है। मेरा भी मिलने को बहुत मन करता है, पर...'' कहते-कहते पत्नी रुक गई और अपनी प्लास्टर चढ़ी बाँह को निहारने लगी, ''और नहीं तो चारपाई पर पड़ी अपनी माँ को ही मिलने आ जाता।''
उन्होंने पत्नी की उदास और गीली हो आई आँखों की ओर देखा और कहा, ''शनि-इतवार की छुट्टी में से एक दिन तो आ ही सकता है, बहू-बच्चों को लेकर।''
''शायद दफ्तर में काम का जोर रहा होगा। पिछली बार आया था तो कह रहा था- माँ, छुट्टी नहीं मिलती। शनि-इतवार को भी दफ्तर में बुला लेते हैं।'' फिर एक गहरा नि:श्वास लेकर बोली, ''चलो, राजी रहे। नौकरी पहले है।''
इसके बाद कुछेक पल चुप्पी छाई रही। न वह कुछ बोले, न पत्नी ही। चुप्पी जब लम्बी और सघन होने लगी तो पत्नी ने ही उसे तोड़ा, ''नाश्ता तो कर जाते। सुरेश के घर पहुँचते-पहुँचते दुपहर हो जाती है।''
''ब्रेड सेंकी हैं, तुम भी ले लो। दाल और फुलके रखे हैं। दोपहर को खा लेना। शाम को तो लौट ही आऊँगा।'' स्टोव पर रखे पानी में चीनी, चायपत्ती डालते हुए वह बोले।
''किराये के लिए पैसे तो है न ? महीने के आखिरी दिन हैं।'' पत्नी ने पूछा।
पत्नी के इस प्रश्न ने एक बार फिर उन्हें उसी उधेड़बुन में डाल दिया जो कल रात से उन्हें परेशान किए हुए थी। बच्चों को देखने का मोह उनके भीतर इतना तीव्र था कि महीने के आखिरी दिनों में पैसों की तंगी भी उन्हें रोक नहीं पायी थी। और कल रात उन्होंने बेटे के घर जाने का फैसला कर लिया था।
''हाँ, पच्चीस रुपये हैं। बहुत हैं। परसों तो पेंशन मिल ही जानी है।'' चाय दो कपों में उँडेल वह फिर पत्नी के पास आ बैठे।
चाय का घूँट भर पत्नी बोली, ''गाड़ी और बसों में जरा ध्यान से आया-जाया करो। तुम जल्दी बहुत मचाते हो। अब तुम्हें दीखता भी कम है। अँधेरा होने से पहले लौटने की करना।''
वह चुपचाप पत्नी की हिदायतें सुनते रहे और चाय में ब्रेड भिगो-भिगो कर खाते रहे।
''कहीं ऐसा न हो, तुम उधर पहुँचो और वे इधर...'' पत्नी ने उनके मुँह की बात छीन ली थी। दरअसल, वह भी इस क्षण यही बात सोच रहे थे।
''ऐसा सोचते-सोचते तो सारी छुट्टियाँ बिता दीं। आज हो ही आता हूँ। बच्चों को देखने को बहुत मन तरसता है।'' उन्होंने कहा और खाली कप उठाकर रसोई में रख आए।
''तुम्हारी दवा है कि खत्म हो गई ?'' चलते-चलते उन्होंने पत्नी से पूछा।
''अभी है, दो दिन की। तुम जाओ। जरा ध्यान से आना-जाना।''

घर से स्टेशन तक की दूरी को पैदल ही तय करना उन्होंने बेहतर समझा। रिक्शा वाला यूँ ही चार-पाँच रुपये झटक लेता है। जाएगा भी घुमाकर, लम्बे रास्ते से। जब तक रिक्शावाला स्टेशन पहुँचेगा, उससे कम समय में तो वह कॉलोनी के बीच के कच्चे रास्ते से होते हुए स्टेशन भी पहुँच जाएंगे।
सुरेश के घर पहुँचने का उनका अपना तरीका है। यहाँ से ई.एम.यू. या कोई भी ट्रेन पकड़ेंगे, शाहदरा पहुँचेंगे। वहाँ उतरकर बस-स्टैंड के लिए फिर लगभग एक किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करेंगे। बस भी वही पकड़ेंगे जो सीधी सुरेश के घर पहुँचाए। इस सब में समय भले ही कुछ अधिक लगे किन्तु कम पैसों में वह सुरेश के घर पहुँच जाते हैं। दो बसें बदलकर इससे आधे समय में वह सुरेश के घर पहुँच सकते हैं लेकिन इस प्रकार पैसे अधिक लगते हैं। लिहाजा वह अपने तरीके पर ही अडिग रहते हैं। आज भी उन्होंने ऐसा ही किया। जब शाहदरा बस-स्टैंड पर पहुँचे तो मालूम हुआ, एक बस उनके पहुँचने से दो मिनट पहले ही निकल चुकी थी। दूसरी बस कम से कम चालीस मिनट बाद आनी थी। अत: उसका इंतजार करने को वह विवश थे।
धूप में अब तेजी आ गई थी। गरमी के कारण पसीना भी चुहचुहाने लगा था। दूसरी बस आकर लगी तो उन्होंने राहत की साँस ली। टिकट लेने के बाद सीट पर बैठ उन्होंने मन ही मन हिसाब लगाया- ट्रेन से आने-जाने के आठ रुपये, बस से सुरेश के घर आने-जाने के छह रुपये, कुल हुए चौदह रुपये... बाकी बचे ग्यारह। काफी हैं, कल का दिन निकल ही जाएगा जैसे-तैसे!
उसी समय, बस में केले वाला चढ़ा।
सहसा, उन्हें ख़याल आया, बच्चों के घर जा रहा हूँ। केले ही ले लेता।...खाली हाथ तो...और उन्होंने केलेवाले से पूछा, ''कैसे दिए भाई केले?''
''बारह रुपये दर्जन। कितने दूँ ? केले बहुत अच्छे हैं।''
वह सोच में पड़ गए। तीन बच्चे हैं। एक दर्जन तो लेने ही पड़ेंगे। लेकिन बारह रुपये ?... नहीं, नहीं। वह खिड़की के बाहर देखने लगे।
''चलो, ग्यारह लगा दिए। एक दर्जन दूँ।'' केलेवाला हटा नहीं था।
एक बार फिर उन्होंने अंदर ही अंदर हिसाब लगाया और बोले, ''दस लगाने हैं तो दे दो एक दर्जन।''
''चलो, निकालो पैसे। आप भी क्या याद करेंगे शाह जी !'' केलेवाले ने गिनकर केले पकड़ा दिए। 'शाह' शब्द पर वह थोड़ा मुस्कराये और जेब से दस का नोट निकालकर थमाते हुए बुदबुदाये, 'कहाँ के शाह यार ?... यहाँ तो...'
सुरेश के घर पहुँचे तो शिखर दुपहरी हो चुकी थी। भूख-प्यास भी लग आई थी। जीने से ऊपर चढ़ते वक्त वह भीतर से बहुत उत्साहित थे। बच्चे देखते ही उनसे लिपट जाएंगे- 'दादा जी आ गए, दादा जी आ गए' कहते हुए। लेकिन जिस उत्साह से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे थे, वह सारा उत्साह ऊपर पहुँचते ही एकदम ठंडा पड़ गया। द्वार पर लगा ताला देख वह जड़ से हो गए। बहुत देर असमंजस की स्थिति में खड़े रहे। अब क्या करें ?... कुछ समझ में नहीं आया। कहाँ गए होंगे ? कहीं ये सब उधर तो नहीं पहुँच गए?... अभी वह यह सब सोच ही रहे थे कि एकाएक बगल के मकान से पड़ोसी निकला। उसी ने बताया, ''पिकनिक पर बड़खल गए हैं, बच्चों को लेकर। रात को ही लौटेंगे।''
सुनकर अधिक देर खड़ा रहना उन्होंने उचित नहीं समझा। लौटने लगे तो हाथ में पकड़े केलों का ध्यान हो आया।
''ये केले दे देना। बच्चों के लिए लाया था। कहना, बच्चों के दादा आए थे।'' मन में आया, यह भी कहें, ‘सुरेश से कहिएगा, बीमार माँ बहुत याद करती है तुझे। कभी मिल आ उसे।’ लेकिन कह नहीं पाए यह सब।
मायूस होकर लौट पड़े।
बस-स्टॉप पर पहुँचे तो भूख और प्यास ने फिर सिर उठाया। मन हुआ, पानी वाले से पानी के दो गिलास लेकर पी लें। परंतु जेब का ख़याल आते ही उन्होंने अपने इस विचार को स्थगित कर दिया।
शाहदरा स्टेशन पहुँचते-पहुँचते थकावट, भूख और प्यास के मारे वे बेदम-से हो गए थे। स्टेशन पहुँचकर देखा, प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन खड़ी थी। तैयार। उन्होंने टिकट खिड़की पर पूछा, ''गाड़ी मेल तो नहीं ?''
''नहीं, पैसेंजर है।''
उनकी जान में जान आई। जेब में पड़ा इकलौता पाँच का नोट निकालकर उन्होंने टिकट लिया और एक रुपया वापस ले प्लेटफॉर्म की ओर लपके। ट्रेन में भीड़ थी। सिगनल हो चुका था। वह जैसे-तैसे एक डिब्बे में चढ़ गए। उनका चढ़ना था कि ट्रेन आगे सरकने लगी।
भीड़ में से जगह बनाते हुए वह खिड़की के पास खड़े हो गए। खिड़की से आती हवा के कारण गरमी से थोड़ा राहत मिली।
ट्रेन अभी आउटर सिगनल ही पार हुई थी कि एकाएक डिब्बे में शोर हुआ। उन्होंने शोर की दिशा में उचक कर देखा। एक अधेड़-सा व्यक्ति रो-चीख रहा था- ''हाय... मैं तो लुट गया... बरबाद हो गया... हाय... मेरी जेब किसी ने काट ली...।''
सुनते ही उनका अपना दायाँ हाथ अकस्मात् ऊपर की जेब पर चला गया। तुरंत ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। जेब में था ही क्या जिसके लुटने का डर उन्हें हो आया ?... वहाँ तो एकमात्र एक रुपये का सिक्का मुँह चिढ़ा रहा था। उन्हें अपनी इस हरकत पर शर्म-सी महसूस हुई। जेब तक गया हाथ अब आहिस्ता-आहिस्ता नीचे आ गया था, अपनी जगह पर।
और अब वह अपनी शर्म और झेंप मिटाने के लिए खिड़की के बाहर पीछे की ओर तेजी से भागती चीजों को देख रहे थे।
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )

9 टिप्‍पणियां:

Ashok Lav ने कहा…

marmik aur jeevan ka kadvaa satya ujagar karne valee kanee hai.
padkar udasee chhayee rahee, apkee kalam ka prabhav hai.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

एक मार्मिक कहानी,
दिल-दिमाग को छू गई ............

Renu Sharma ने कहा…

behad marmshparshi kahani hai , aajkal yahi sab to ho raha hai .
shukriya kahani padhne ki davat dene ke liye .

बेनामी ने कहा…

Lute hue log ka sheershak bhee prateekatmak hai. bechare kee jeb se to naheen man se hee sab lut gaya tha. ek baat poochhoon ,kuchh khayal mat keejiyega. mera bharat me chhote nagro jana naheen hota kya waqaee panee kee itnee samasyayen ab bhee hein,lagta hai ki kisee our yug kee baat ho rahee hei.kahanee prabhav chhortee hai.
-Rekha Maitra

सहज साहित्य ने कहा…

भाई आपकी कहानी का कोई जवाब नहीं ।पूरी कहानी एक फ़िल्म की रील की तरह आँखों के आगे घूम जाती है । भाषा पर मज़बूत पकड़ इस कहानी को और उत्कृष्ट बनाती है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

क्या कहूँ.....! ने कहा…

बहुत मार्मिक सत्य को छूती हुई कहानी है। अन्त में जेब में बचा हुआ एक रुपया और उसके भी लुट जाने का डर ...! वाह.. क्या प्रतीक का प्रयोग किया है सुभाष जी... और लुटे हुए लोग!

सुमन कुमार घई

sandhyagupta ने कहा…

Achchi lagi aapki kahani.

बेनामी ने कहा…

lute hue log kahani shirshak ki dristi se atyant sarthak hai. kahani ki samvedana man ko gahre chhuti hai. Aam jindagi ki aam kahani likhane ka bahut-2 shukria.

Ranjana srivastava
Siliguri

Ila ने कहा…

इस कहानी का अंत इसे इस विषय पर लिखी गई अन्य कहानियों से अलग और विशिष्ट बना देता है। बेहद प्रभावशाली अंत और शीर्षक के लिए बधाई!
इला