रफ़-कॉपी
सुभाष नीरव
बाबू रामप्रकाश पलभर अपनी याददाश्त को कोसते रहे। पिछले तीन दिनों से वह भूलते आ रहे थे। आज फिर उन्होंने बेटे को समझाने की कोशिश की, ''ओह बेटा, हम आज फिर भूल गये। देखो न, कितना काम रहता है! याद ही नहीं रहता, सच।''
''हम कुछ नहीं जानते। आप तीन दिन से टाले जा रहे हैं। हमें कापी आज ही चाहिए।'' रमेश ज़िद करने लगा।
''बेटा, रात को इस वक्त दुकानें भी बंद हो गयी होंगी। कल हम ज़रूर ला देंगे।''
पर, बेटा अड़ा रहा। बाबू रामप्रकाश सोच में पड़ गये। एकाएक उनकी नज़र मेज़ पर रखे पतले-से उस नये रजिस्टर पर पड़ी जिसे वह आज ही दफ़्तर से नयी एंट्री करने के लिए लाये थे।
''लो बेटा, तुम इस पर अपना रफ़-काम कर लिया करो।'' उन्होंने रमेश को रजिस्टर थमाते हुए कहा।
रमेश ने रजिस्टर को खोलकर देखा, ''पापा, इसमें तो खाने बने हुए हैं।''
''तुझे रफ़-काम करने से मतलब है या खानों से ?'' बाबू रामप्रकाश एकाएक गुस्सा हो उठे। रमेश रजिस्टर लिये सहमा हुआ-सा कमरे से बाहर निकल गया।
बेटे के चले जाने के बाद बाबू रामप्रकाश ने मन ही मन सोचा - कल फिर स्टेशनरी-क्लर्क को नया रजिस्टर इशू करने के लिए चाय पिला देंगे। चाय कॉपी से सस्ती पड़ती है। फिर प्रसन्न से ऑफिस से लाया दूसरा काम करने में जुट गए।
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13 टिप्पणियां:
कार्यालय का स्टॉक-क्लर्क या स्टेशनरी क्लर्क स्वयं कितनी स्टेशनरी पार करता होगा--इसे पढ़कर मैं यही सोच रहा हूँ।
Anna Hazare ka salaam
Chaand Shukla
Denmark
ek achchhe prasang ko is laghu katha ke madhyam ke antargat uska prastutikaran khubsurat ban padaa hai. kaee logon ki mansik sachchai ko bhee oojagar kartaa hai badhai.
SACHCHAAEE PAR AADHAARIT AAPKEE
IS LAGHU KATHA KO DAFTARON KE HAR
BABU KO PADHNEE CHAHIYE . BAHUT
KHOOB !
भाई मैंने इतनी लंबी टिप्पणी लिखी और वह पता नहीं कहां समा गयी. अब बस इतना ही कि भ्रष्टाचार किस कदर व्याप्त है इसका तुमने बहुत सही चित्रण किया है. छोटी-छोटी चीजों के लिए लोग अपना ईमान बेच रहे हैं. अण्णा हजारे की मुहिम कितना रंग लाएगी यह कहाना कठिन है. लोगों को स्वयं आत्ममंथन करने की आवश्यकता है.
रूपसिंह चन्देल
०९८१०८३०९५७
एक ऐसी सच्चाई जिसकी ओर से ज़्यादातर लोग आँख मूँद लेते हैं...पर आपने बड़े सटीक ढंग से याद दिला दी...।
मेरी बधाई...।
प्रियंका
भ्रष्टाचार किस प्रकार दबे पाँव हमारे जीवन में चला आता है , इसका स्वाभाविक चित्रण किया गया है, विश्वसनीय तो है ही ।
जीवन की सच्चाई ब्यान करती एक कहानी !
बहुत बार ऐसे की गई यह छोटी - छोटी सी चोरी ..हमें चोरी ही नहीं लगती !
वो कर रहा है ..मैं क्यों पीछे ?
प्रणाम !
आज सरकारी महकमो में ये ही हालत है सिर्फ ये एक चाय देश पे कितनी बारी पड़ती है ये हमे अंदाजा नहीं है , बस अपनी जेब के तो रुपये बचे जब तक हम अपना नय्तीक दायित्व नहीं समझेगे नयी नयी कॉपिया रद्दी बनी होगी और बनती रहेगी ,जब दीमक ही घर को खाने लगे तो कैसे बचे .. , अच्छी लघु कथा के लिए साधुवाद !
नीरव जी इस सुन्दर लघु कथा के लिए आप को हार्दिक बधाई .
व्यक्तिगत स्वार्थ की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि भ्रस्टाचारका जंगल उग आया है ।आत्ममंथन कैसे हो !--आत्मा तो जड़ों के नीचे दब कर रह गयी है। तब भी 'रफ -कॉपी 'जैसी लघुकथाओं का मानव - मस्तिष्कपर कुछ तो असर होगा। सुभाष जी का इस दिशा में प्रयास प्रशंसनीय है |
सुधा भार्गव
ati uttam likha..... yeh ek mahatwa purn bindu hai... jis pe hum dyan nahi dete.... badi badi jang toh lad rahe hai bharachtachar se par in choti choti chipi hue jado ko bhi katna hoga....
ati uttam likha..... yeh ek mahatwa purn bindu hai jiske baare me hame sochna chahiye....
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