मित्रो
'सृजन-यात्रा' ब्लॉग पर जनवरी 2011 से मैंने अपनी लघुकथाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था। अब तक कुल छह लघुकथाएं ही प्रकाशित हुई हैं। अपनी सभी लघुकथाएं एक एक करके मैं 'सृजन-यात्रा' में प्रकाशित करुँगा। मेरी ये सभी लघुकथाएं शीघ्र ही पुस्तक रूप में भी आपके समक्ष होंगी - 'सफ़र में आदमी' शीर्षक से जो भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। इसी संग्रह में से इस बार प्रस्तुत है एक और लघुकथा- 'अकेला चना'... आशा है, आप अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत करायेंगे।
आप सबको दीप-पर्व दीपावली की अनेक शुभकामनाएं....
सुभाष नीरव
अकेला चना
सुभाष नीरव
बस पहले ही आधा घंटा लेट हो चुकी थी। दफ्तर जाने वाले सभी यात्री चीख-चिल्ला रहे थे। रास्ते में चैकिंग-स्टाफ खड़ा था। बस रुकवाकर चैकिंग की जाने लगी। सभी गुस्से में बड़बड़ाने लगे। पिछले दो दिनों से मैं लेट पहुंच रहा था। बॉस ने कल वार्निंग भी दी थी। मुझसे नहीं रहा गया।
''बस पहले ही आधा घंटा लेट है। इसे रोककर चैकिंग करने से हम और लेट हो जायेंगे। आप चलती बस में चैकिंग क्यों नहीं करते ?'' सीट से उठकर मैंने चैकिंग-स्टाफ से कहा।
''तू म्हारा अफसर लागै है के ?'' उनमें से एक बोला, ''हमणै आपणी ड्यूटी करणी सै। बस लेट हो रीयै तो हम के करैं ?''
''यह गलत तरीका है आपका...!'' मैंने रोष प्रकट किया। मुझे लगा, मेरी आवाज़ हद से ज्यादा तेज़ हो गयी थी।
''घणा शोर नी कर, बस चैक होण दे।''
''चलती बस भी चैक हो सकती है। बेवजह आप बस को नहीं रोक सकते। हम सब लोग दफ्तर के लिए पहले ही लेट हुए जा रहे हैं।'' मैं अकेला ही उनसे अड़ गया।
''रोक कै ई होगी चैक...भले ही घंटा लागै।'' दूसरा चैकर मुझे घूरते हुए बोला, ''चल, आपणा टिकट दिखा।''
मैंने खीझते हुए अपना टिकट उसे थमा दिया। वह टिकट लेकर बस से नीचे उतर गया और बोला, ''इब तू नीचे आ जा... घणा शोर मचावै था, बेटिकट चले है...।''
मैंने प्रतिवाद किया, ''मेरा टिकट आपके हाथ में है, मैं बेटिकट नहीं हूँ ?''
वह हँसा। सभी चैकर मुझे घेरकर खड़े हो गये।
''इस बस का टिकट ना है ये।''
“इसी बस का है ये टिकट…” मैं लगभग चीख ही पड़ा था।
''हमणै बेईमान बताण लाग रीया सै...चल।'' उसने मुझे एक ओर धकेला और बस को चलने की व्हिसिल दे दी।
एक क्षण मैंने जाती हुई बस की ओर देखा। बस में बैठे हुए लोग उपहासभरी दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे।
''घणा नेता नी बणा करते... चल, निकाल सौ रुपइया...।''
हाथों में पकड़ी सौ रुपये की पर्ची को मैंने एक बार गुस्से से देखा और फिर दांत पीसते हुए उसे चिन्दी-चिन्दी करके वहीं हवा में बिखेर दिया।
मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011
लघुकथा
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11 टिप्पणियां:
संघर्ष की राह पर आगे बढ़ने से पहले इसीलिए हालात का जायजा ले लेना आवश्यक है। कुत्तों से घिरे आदमी को चारों तरफ जब भेड़िये नजर आ रहे हों तो बचाव की गुहार वह किससे करेगा?
लघुकथा की शुरूआत बेहतर है। पर अंत अस्पष्ट सा है। यह समझ नहीं आया कि विरोध करने वाला क्या वास्तव में बिना टिकट था। उसके पास जो टिकट था क्या वह वास्तव में उस बस का नहीं था। उसके हाथ में जो सौ रूपए की पर्ची थी,क्या उसके बदले में उसने उन्हें सौ रूपए दिए थे। अगर दिए थे तो क्यों।
शायद यही वजह है कि लोग सही होते हुए भी विवाद से दूर रहते हैं और जानते हुए भी चुप रह जाते हैं. अगर गलत के प्रति आवाज़ उठाया तो खामियाजा हिन् भुगतना पड़ता है और साथ भी कोई नहीं देता. आज के समाज का सच है ये. बधाई.
ytharth laghukatha ke liye aapko
badhaaee .
व्यवस्था की यह हेकड़ी समाज में सब जगह बरकरार है। कोई भी क्षेत्र इससे मुक्त नहीं है । जिसके पास ज़रा -सी भी ताकत है( चाहे वह जुगाड़ की हो या किसी पद या कद की) वह बाकी को घास -कूड़ा ही समझता है ; लेकिन अगर सामने उससे बड़ी ताकत वाले लोग हों तो पूँछ हिलाने का काम भी उतनी ही जल्दी करता है । बहुत अच्छी लघुकथा ।
ग़लत कार्य का विरोध करने वाले को अक्सर ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़ता है, इसी लिए ज़्यादातर लोगों की सोच ‘जैसा चल रहा है, चलने दो’ वाली हो जाती है...। एक सटीक रचना के लिए बधाई...।
प्रियंका
अकेला चना पढी ! सच बोलने का मूल्य है जो सुकरात के ज़माने से आज तक चुकाना होता है ! रचना सुन्दर है !बधाई !
Rekha Maitra
सच्चाई बयान करती एक सार्थक रचना के लिए मेरी बधाई...।
मानी
नीरव बधाई इस लघुकथा को दोबारा पढ़वाने के लिए. व्यवस्था जब क्रूर होती है और वह होती ही है, आज से नहीं युगों से है, तब भले व्यक्ति का यही हाल होता है. लोग विरोध करने वाले को मूर्ख समझते हैं. खुद ही भुक्तभोगी हूं और विरोध के लिए उपहास का पात्र बना हूं एक बार नहीं अनेक बार लेकिन आदत है कि छूटती ही नहीं जबकि वक्त अब इतना खराब आ गया है कि ऎसे लोगों की जान पर भी कई बार बन आती है.
दीपावली की शुभकामना के साथ,
चन्देल
बेहद तीखी लघुकथा है. ऎसी स्थितियां अक्सर आकर सामने खडी हो जाती हैं और समझ में नहीं आता कि क्या किया जाये? कई बार दैनिक यात्री ऎसी चीजों से जूझने के लिए अनौपचारिक संगठन भी बना लेते हैं, पर तब वे स्वयं भी समस्या बन जाते हैं. उम्मीद है रचना पाठकों को सही समाधान की दिशा में सोचने को विवश करेगी.
सुभाष जी ,
इस कथा से कम से कम लोगों को यह तो सीख लेनी चाहिए कि अगर कोई अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाये तो बाकि लोगों को भी खामोश नहीं रहना चाहिए ...यह हमारा नैतिक कर्तव्य है कि गलत कार्य को होने से रोकें ....वर्ना भ्रष्टाचार और बढ़ता जायेगा
....रूप सिंह जी यह आदत छूटनी भी नहीं चाहिए ....:))
बहुत अच्छी प्रेरणादायक लघु कथा .....
बधाई ....!!
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