मित्रो
अपनी लघुकथा ‘कड़वा अपवाद’ को यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे विक्रम सोनी जी की याद हो आ रही है और याद आ रही है, उनकी पत्रिका ‘लघु आघात’। विक्रम सोनी जी जितने सशक्त लघुकथा लेखक रहे, उतने ही अच्छे एक संपादक भी रहे हैं। 'लघु आघात' के माध्यम से उन्होंने हिन्दी लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन दिया और उसके विकास के लिए जो काम किया, वह भुलाया नहीं जा सकता। मेरे शुरुआती लेखन के समय में विक्रम जी ने मेरी कई लघुकथाएं ‘लघु आघात’ में प्रकाशित की थीं। मुझे आश्चर्य होता था कि उन दिनों ‘सारिका’ में छपी मेरी लघुकथा(ओं) पर इतना नोटिस नहीं लिया गया था, जितना 'लघु आघात' में छ्पी मेरी लघुकथाओं पर लिया गया। लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तब सक्रिय अनेकों लेखकों ने मुझे जाना और कइयों से मेरा परिचय हुआ जो आज तक कायम है। आज लघुकथा के आकाश का यह सितारा गुमनामी के अंधेरे में है। कथाकार बलराम अग्रवाल ने बताया कि वह अब उज्जैन में रहते हैं और लिख-पढ़ सकने की स्थिति में नहीं हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ-सानन्द रखे, यही कामना करते हुए आपके समक्ष अपनी लघुकथा 'कड़वा अपवाद ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
सुभाष नीरव
कड़वा अपवाद
सुभाष नीरव
रेलवे क्रॉसिंग। फाटक बन्द होने के कारण बस एक झटके के साथ रुक गयी। तभी एक औरत गोद में बच्चा लिये हुए बस में चढ़ी।
''बाऊजी... भाई साहब... मुसीबत की मारी गरीब आपके आगे हाथ फैलाकर भीख मांगती... रात ठंड से मेरा आदमी गुजर गया साब... ल्हास के कफन के वास्ते मांगती... झूठ नीं बोलती... बाऊजी... बच्चे की कसम खाती... पेट की खातिर नहीं, आदमी की ल्हास के वास्ते हाथ फैलाती... वहाँ गली के मोड़ पर पड़ी है ल्हास... मेरी मदद करो, मेरे माई-बाप... रुपया-दो रुपया गरीब की झोली में डालकर... भगवान आपकी मदद करेगा, मेरे मालिक...''
उसका करुण रुदन सुनकर सभी के दिल पसीजने लगे। वह बार-बार बच्चे की कसम खाती, झुककर बैठे हुए लोगों के पैरों को छूती और जोरों से प्रलाप करने लगती।
लोग अपनी जेबें टटोलने लगे। एक ने दिया तो सभी देने लगे। कोई रुपया, तो कोई दो रुपया दे रहा था। किसी-किसी ने तो पाँच-दस का नोट भी दिया। देखते-देखते, उसके पल्लू में तीस-चालीस रुपये जमा हो गये। वह फिर भी मांगे जा रही थी। मेरे पास आकर उसने मेरे पैर भी छूने चाहे। मुझे यह सब ढोंग लग रहा था। जानता था कि भीख मांगने के लिए आजकल किस-किस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। मैंने उसे बेरहमी से झिड़क दिया, ''बन्द करो यह ड्रामेबाजी... तुम्हारा कोई आदमी-वादमी नहीं मरा है... भीख मांगने का अनोखा तरीका खोज निकाला है तुम लोगों ने...''
''अरे भई, नहीं देना तो मत दो, पर बेचारी को डांटो तो नहीं...'' बस में से एक आवाज उभरी।
''यह सब नाटक कर रही है। अभी कुछ देर बाद इसका आदमी दूसरी बस में चढ़ेगा और कहेगा, मेरी औरत मर गयी... उसके कफन के वास्ते पैसे चाहिएँ...ये लोग भीख मांगने के लिए कभी अपनी माँ को मारते हैं तो कभी अपनी बीवी को...कभी बाप को तो कभी बेटे को...।''
''अरे, बेचारी अपने बच्चे की कसम खा रही है। कोई झूठ बोल रही होगी क्या ?'' दूसरी आवाज उभरी।
''जो भीख मांगने के लिए अपने आदमी को मार सकती है, उसके लिए बच्चे की कसम खाना कोई बड़ी बात नहीं है।'' मैं उत्तेजित होकर बोल रहा था, ''यह सब ढोंग है। नहीं यकीन तो चलो, मैं दिखाता हूँ... नशा करके पड़ा होगा इसका खसम...।''
मेरी बातों का कुछ असर-सा हुआ लोगों पर। फाटक अभी भी बन्द था। बस चलने में अभी काफी देर थी।
''चल, दिखा, कहाँ है लाश?'' मैंने उस औरत से कहा।
''उस गली के मोड़ पर पड़ी है।'' औरत ने इशारे से बताया।
मैंने संग चलने को कहा तो वह आनाकानी करने लगी। अब अन्य लोग भी उसके पीछे पड़ गये, ''चल दिखा, कहाँ मरा पड़ा है तेरा आदमी...।'' उसके लिए अब बचना मुश्किल था। वह चुपचाप चल दी। मैं कुछ लोगों के साथ उसके पीछे हो गया। गली के मोड़ पर पहुँचकर देखा, वहाँ कोई लाश वगैरह नहीं थी। एक विजयी मुस्कान मेरे होंठों पर तैर गई। लोगों ने सख्ती से पूछा, ''कहाँ है लाश ?... झूठ बोलती थी !''
वह रोती हुई कुछ और आगे बढ़ी।
कुछ ही दूरी पर कुछ लोग किसी को घेरे हुए खड़े थे। वह औरत आगे बढ़कर जमीन पर लेटे हुए आदमी से लिपट गयी और जोर-जोर से रोने लगी। मुझे लगा, मेरे पैर काँपने-से लगे हैं... तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, ''साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा...'' और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।
अपनी लघुकथा ‘कड़वा अपवाद’ को यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे विक्रम सोनी जी की याद हो आ रही है और याद आ रही है, उनकी पत्रिका ‘लघु आघात’। विक्रम सोनी जी जितने सशक्त लघुकथा लेखक रहे, उतने ही अच्छे एक संपादक भी रहे हैं। 'लघु आघात' के माध्यम से उन्होंने हिन्दी लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन दिया और उसके विकास के लिए जो काम किया, वह भुलाया नहीं जा सकता। मेरे शुरुआती लेखन के समय में विक्रम जी ने मेरी कई लघुकथाएं ‘लघु आघात’ में प्रकाशित की थीं। मुझे आश्चर्य होता था कि उन दिनों ‘सारिका’ में छपी मेरी लघुकथा(ओं) पर इतना नोटिस नहीं लिया गया था, जितना 'लघु आघात' में छ्पी मेरी लघुकथाओं पर लिया गया। लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तब सक्रिय अनेकों लेखकों ने मुझे जाना और कइयों से मेरा परिचय हुआ जो आज तक कायम है। आज लघुकथा के आकाश का यह सितारा गुमनामी के अंधेरे में है। कथाकार बलराम अग्रवाल ने बताया कि वह अब उज्जैन में रहते हैं और लिख-पढ़ सकने की स्थिति में नहीं हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ-सानन्द रखे, यही कामना करते हुए आपके समक्ष अपनी लघुकथा 'कड़वा अपवाद ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
सुभाष नीरव
कड़वा अपवाद
सुभाष नीरव
रेलवे क्रॉसिंग। फाटक बन्द होने के कारण बस एक झटके के साथ रुक गयी। तभी एक औरत गोद में बच्चा लिये हुए बस में चढ़ी।
''बाऊजी... भाई साहब... मुसीबत की मारी गरीब आपके आगे हाथ फैलाकर भीख मांगती... रात ठंड से मेरा आदमी गुजर गया साब... ल्हास के कफन के वास्ते मांगती... झूठ नीं बोलती... बाऊजी... बच्चे की कसम खाती... पेट की खातिर नहीं, आदमी की ल्हास के वास्ते हाथ फैलाती... वहाँ गली के मोड़ पर पड़ी है ल्हास... मेरी मदद करो, मेरे माई-बाप... रुपया-दो रुपया गरीब की झोली में डालकर... भगवान आपकी मदद करेगा, मेरे मालिक...''
उसका करुण रुदन सुनकर सभी के दिल पसीजने लगे। वह बार-बार बच्चे की कसम खाती, झुककर बैठे हुए लोगों के पैरों को छूती और जोरों से प्रलाप करने लगती।
लोग अपनी जेबें टटोलने लगे। एक ने दिया तो सभी देने लगे। कोई रुपया, तो कोई दो रुपया दे रहा था। किसी-किसी ने तो पाँच-दस का नोट भी दिया। देखते-देखते, उसके पल्लू में तीस-चालीस रुपये जमा हो गये। वह फिर भी मांगे जा रही थी। मेरे पास आकर उसने मेरे पैर भी छूने चाहे। मुझे यह सब ढोंग लग रहा था। जानता था कि भीख मांगने के लिए आजकल किस-किस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। मैंने उसे बेरहमी से झिड़क दिया, ''बन्द करो यह ड्रामेबाजी... तुम्हारा कोई आदमी-वादमी नहीं मरा है... भीख मांगने का अनोखा तरीका खोज निकाला है तुम लोगों ने...''
''अरे भई, नहीं देना तो मत दो, पर बेचारी को डांटो तो नहीं...'' बस में से एक आवाज उभरी।
''यह सब नाटक कर रही है। अभी कुछ देर बाद इसका आदमी दूसरी बस में चढ़ेगा और कहेगा, मेरी औरत मर गयी... उसके कफन के वास्ते पैसे चाहिएँ...ये लोग भीख मांगने के लिए कभी अपनी माँ को मारते हैं तो कभी अपनी बीवी को...कभी बाप को तो कभी बेटे को...।''
''अरे, बेचारी अपने बच्चे की कसम खा रही है। कोई झूठ बोल रही होगी क्या ?'' दूसरी आवाज उभरी।
''जो भीख मांगने के लिए अपने आदमी को मार सकती है, उसके लिए बच्चे की कसम खाना कोई बड़ी बात नहीं है।'' मैं उत्तेजित होकर बोल रहा था, ''यह सब ढोंग है। नहीं यकीन तो चलो, मैं दिखाता हूँ... नशा करके पड़ा होगा इसका खसम...।''
मेरी बातों का कुछ असर-सा हुआ लोगों पर। फाटक अभी भी बन्द था। बस चलने में अभी काफी देर थी।
''चल, दिखा, कहाँ है लाश?'' मैंने उस औरत से कहा।
''उस गली के मोड़ पर पड़ी है।'' औरत ने इशारे से बताया।
मैंने संग चलने को कहा तो वह आनाकानी करने लगी। अब अन्य लोग भी उसके पीछे पड़ गये, ''चल दिखा, कहाँ मरा पड़ा है तेरा आदमी...।'' उसके लिए अब बचना मुश्किल था। वह चुपचाप चल दी। मैं कुछ लोगों के साथ उसके पीछे हो गया। गली के मोड़ पर पहुँचकर देखा, वहाँ कोई लाश वगैरह नहीं थी। एक विजयी मुस्कान मेरे होंठों पर तैर गई। लोगों ने सख्ती से पूछा, ''कहाँ है लाश ?... झूठ बोलती थी !''
वह रोती हुई कुछ और आगे बढ़ी।
कुछ ही दूरी पर कुछ लोग किसी को घेरे हुए खड़े थे। वह औरत आगे बढ़कर जमीन पर लेटे हुए आदमी से लिपट गयी और जोर-जोर से रोने लगी। मुझे लगा, मेरे पैर काँपने-से लगे हैं... तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, ''साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा...'' और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।
23 टिप्पणियां:
सुभाष जी,
सच में आजकल किसी पर जल्दी यकीन नहीं होता कि कोई सच बोल रहा या झूठ. धोखा देने और भरोसा तोड़ने के कारण कई बार सच को भी झूठ मान लिया जाता है. आज के समाज का ये रूप ही ऐसा कराता है और हम ऐसा सोच लेते हैं. कितने भीख मांगने वालों ने अपनों के मरने के नाम पर भीख मांगना रोज़गार बना लिया है. इस कहानी के माध्यम से आपने लोगों की मानसिकता का सटीक चित्रण किया है, बधाई.
ओह ..बहुत मार्मिक ..
आपकी यह लघुकथा पढ़कर मुझे अपनी एक अप्रकाशित लघुकथा की याद आ गई। मैंने वह अपने साथ एक सच्ची घटना पर लिखी थी। फर्क केवल इतना है मेरे साथ घटी घटना में व्यक्ति अपने बीमार बच्चे के नाम पर पैसा मांगता था। उसके पास डॉक्टर के परचे भी होते थे। और गोदी में हर बार नया बच्चा।
बहरहाल आपकी लघुकथा अपने उद्देश्य में सफल है। विक्रम सोनी को याद करना अच्छा लगा। लघुआघात का ग्राहक मैं भी रहा हूं। और मित्र वे मेरे भी रहे हैं। आजकल वे अस्वस्थ्य हैं यह जानकारी बलराम जी से ही मुझे भी मिली थी।
सच बोलने वालों की इतनी कमी है कि वे भी संदेह के घेरे में आ जाते हैं |
मार्मिक लघुकथा !
विक्रम सोनी जी के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं!
सादर
इला
सुभाष जी,
इस लघु कथा को पढ़कर कुछ पल को अविश्वास से आंदोलित भावों में नीरवता छा गयी....
— कभी-कभी सोचता हूँ.... गरीबी और लाचारी ने ही तो कहीं अभिनय को जन्म नहीं दिया.. सबल और सक्षम लोगों की संवेदना को जगाने निमित्त ही कारुणिक व मार्मिक अभिनय कला उनके सम्मुख मंचित होने लगती है.
— अब क्योंकि 'भरी जेब वाले' अपनी जेबें केवल धार्मिक ठिकानों पर ही ढीली करते हैं. जेबों का ओवर फ्लो अभाव जनों को झलकने नहीं पाता इसलिये वे अपने कृत्रिम कारुणिक कृन्दन की तपिश से उसे जहाँ-तहाँ पसिजवाते दिख जाते हैं.
आपकी इस लघु कथा ने मर्म को छू लिया.... आपकी लेखनी से आगे भी इसकी आशा बनी रहेगी.
bahut marmik ghatna.vaastav me aajkal log paise ki khatir itna drama karte hain ki asli nakli me farq hi gaayab ho gaya hai.bahut achchi laghu katha.aapke blog par aakar achcha laga leejiye follow kar liya aapke blog ko.milte rahenge.
ह्रदय स्पर्शी कथा....
सादर
marmik post
बेहद मार्मिक प्रस्तुति ।
AAPKEE LAGHU KATHA NE JHAKJHOR KAR
RAKH DIYA HAI . ISKO KAHTE HAIN
` GAGAR MEIN SAGAR BHARNA ` . AAP
MANJE HUE KATHAKAR HAIN .AAPKEE
LEKHNI KO SALAAM .
बहुत मार्मिक लघुकथा ! देशकाल की परिधि से परे ! आज भी पूर्ववत् प्रभावी।
Marmik bhaav....achhi rachna...
आजकल बेईमानी इतनी फैल चुकी है कि सच बोलने वाला भी अविश्वास के घेरे में आ जाता है...। एक सटीक व मार्मिक रचना के लिए बधाई...।
आदरणीय विक्रम सोनी जी के स्वास्थ्य-लाभ और दीर्घ जीवन के लिए शुभकामनाएँ...।
प्रियंका
पहली बार पढ़ी. बहुत ही मार्मिक लघुकथा.
चन्देल
ह्रदय स्पर्शी
किस पर यकीं करें...ऐसे में इस तरह की घटना अपवाद ही कहलायेगी कि वो सच बोल रही थी.
मार्मिक रचना..
नीरव जी आपने एक कड़वी सच्चाई बताई है। यह बिल्कुल सत्य है कि मनुष्य अब संवेदनहीन हो गया है। कब कौन विश्वास करने लायक है कहा नहीं जा सकता। ज्यादातर धोखा ही मिलता है इसीलिए इस तरह की कड़वी सच्चाई से जब सामना होता है तो मन दुखित हो जा उठता है।
-डॉ. रत्ना वर्मा
विक्रम सोनी जी की स्वस्थता की कामना करती हूँ I
विश्वास को एक बार ठेस लगने पर दूसरों का भरोसा करना बड़ा कठिन हो जाता हैIयह लघुकथा इसी मानसिकता की परिचायक हैI साथ में मानवीयता की ओर संकेत है कि अपने को नियंत्रण में रखते हुए गरीबी का मजाक नहीं उड़ाना चाहिएI शीर्षक कहानी के अनुरूप अति उत्तम है I
aaj ke haalat ne samay ke upar esi chaadar odaa dee hai ki use pahchaanna mushkil ho gayaa hai,ese mai kisi ki bhee jameen khisak sakti hai,badhai.
neerav ji aapki l.k.kadva apvad behad marmik v satya ka udghatan karti hai...roj hi aise jhooth dekhe jate hai lekin kabhi kabhi aisa satye bhi hota hai .. bhav v kalapaksh dono hi ati shreshth hai .. .. aapki baki l.k. bhi padhi .. sadhe shabd, sarthak bhavabhivyakti, saral, utkrasht bhasha ka sanyojan .wah.. bahut dino bad itna accha padne v sikhne ko mila.. aapka shukriya..
लघुकथा बेहद प्रभावशाली है. आपने लघु आघात और आद. विक्रम सोनी जी को याद किया, अच्छा लगा. लघु आघात एक अलग किस्म की पत्रिका थी. उसके माध्यम से लघुकथा पर काम तो हुआ ही, साहित्य के लिए लघु पत्रिकाओं को काम किस तरह करना चाहिए, इसका एक उदहारण भी प्रस्तुत किया था लघु अघात ने. मुझे आज भी लगता है लघु पत्रिकाओं को आघात/लघु आघात के पुराने अंक तलाश कर उनसे साहित्य के संयोजन, प्रस्तुतीकरण, संपादन आदि के बारे में समझना-सीखना और अनुकरण करना चाहिए.
ham kya karein insaan ne khud itni doori bana li hai apni harkaton se...na bharosa hota hai..na wo karne deta hai...maarmik rachna...
ओहो ...
ऐसे ही लोगों के झूठ के झांसे में बहुत बार आने पर,उनके कहें सच पर यकीन नहीं होता
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