मित्रो, ‘साम्प्रदायिकता’
एक ऐसा विषय है जिस पर हिंदी साहित्य में ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं में भी बहुत
कुछ लिखा गया। ‘भारत-पाक विभाजन’, ‘1984 के सिक्ख विरोधी दंगे’, ‘बाबरी मस्जिद’ ‘गुजरात
दंगों’ पर तो अनेक कहानियां, उपन्यास, लघुकथाएं, हिंदी और हिंदीतर भाषाओं में पढ़ने
को मिल जाएंगी। मैंने इस विषय पर एक कहानी ‘औरत होने का गुनाह’ और चार लघुकथाएं – ‘इंसानी
रंग’, ‘एक और कस्बा’, ‘चेहरे’, इंसानियत का धर्म’ अब तक लिखीं। ये रचनाएं इसलिए
नहीं लिखीं कि मुझे ‘साम्प्रदायिकता’ विषय पर भी लिखना है, बल्कि इसके पीछे ‘साम्प्रदायिकता
के ज़हर’ को लेकर मेरे भीतर कुछ प्रश्न थे, जिनके उत्तर की तलाश में ये रचनाएं
सामने आईं। पर मैं आज तक सही उत्तर नहीं खोज पाया। कुछ पुराने और कुछ नए प्रश्न इस
विषय पर मुझे आज भी घेरे रहते हैं। इन्हीं में से एक लघुकथा ‘एक और कस्बा’ आपसे साझा कर रहा हूँ।
-सुभाष नीरव
एक और कस्बा
सुभाष
नीरव
देहतोड़ मेहनत के बाद, रात की
नींद से सुबह जब रहमत मियां की आँख खुली तो उनका
मन पूरे मूड में था। छुट्टी का दिन था और कल ही उन्हें पगार मिली थी। सो, आज वे पूरा
दिन घर में रहकर आराम फरमाना और परिवार के साथ बैठकर कुछ उम्दा खाना खाना चाहते थे।
उन्होंने बेगम को अपनी इस ख्वाहिश से रू-ब-रू करवाया। तय हुआ कि घर में आज गोश्त पकाया
जाए। रहमत मियां का मूड अभी बिस्तर छोड़ने का न था, लिहाजा
गोश्त लाने के लिए अपने बेटे सुक्खन को बाजार भेजना मुनासिब समझा और खुद चादर ओढ़कर
फिर लेट गये।
सुक्खन थैला और पैसे लेकर
जब बाजार पहुँचा,
सुबह के दस बज रहे थे। कस्बे की गलियों-बाजारों में चहल-पहल
थी। गोश्त लेकर जब सुक्खन लौट रहा था, उसकी नज़र ऊपर आकाश में तैरती एक
कटी पतंग पर पड़ी। पीछे-पीछे, लग्गी और बांस लिये लौंडों की भीड़ शोर मचाती
भागती आ रही थी। ज़मीन की ओर आते-आते पतंग ठीक सुक्खन के सिर के ऊपर चक्कर काटने लगी।
उसने उछलकर उसे पकड़ने की कोशिश की, पर नाकामयाब रहा। देखते ही देखते, पतंग
आगे बढ़ गयी और कलाबाजियाँ खाती हुई मंदिर की बाहरी दीवार पर जा अटकी। सुक्खन दीवार
के बहुत नज़दीक था। उसने हाथ में पकड़ा थैला वहीं सीढ़ियों पर पटका और फुर्ती से दीवार
पर चढ़ गया। पतंग की डोर हाथ में आते ही जाने कहाँ से उसमें गज़ब की फुर्ती आयी कि वह
लौंडों की भीड़ को चीरता हुआ-सा बहुत दूर निकल गया, चेहरे पर विजय-भाव लिये
!
काफी देर बाद,
जब उसे अपने थैले का ख़याल आया तो वह मंदिर की ओर भागा। वहाँ
पर कुहराम मचा था। लोगों की भीड़ लगी थी। पंडित जी चीख-चिल्ला रहे थे। गोश्त की बोटियाँ
मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें हथियाने के लिए आसपास के आवारा कुत्ते अपनी-अपनी
ताकत के अनुरूप एक-दूसरे से उलझ रहे थे।
सुक्खन आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका। घर लौटने पर गोश्त का यह
हश्र हुआ जानकर यकीनन उसे मार पड़ती। लेकिन वहाँ खड़े रहने का खौफ भी उसे भीतर तक थर्रा
गया- कहीं किसी ने उसे गोश्त का थैला मंदिर की सीढ़ियों पर पटकते देख न लिया हो ! सुक्खन
ने घर में ही पनाह लेना बेहतर समझा। गलियों-बाजारों में से होता हुआ जब वह अपने घर
की ओर तेजी से बढ़ रहा था,
उसने देखा- हर तरफ अफरा-तफरी सी मची थी, दुकानों
के शटर फटाफट गिरने लगे थे,
लोग बाग इस तरह भाग रहे थे मानो कस्बे में कोई खूंखार दैत्य
घुस आया हो!
9 टिप्पणियां:
अफवाहें बात का बतंगड़ बनती हैं !!
बढ़िया लघुकथा है...बधाई। बिना सोचे समझे भेड़-चाल का सजीव उदाहरण है।
ज़रा सी नादानी और कैसा हुआ हश्र ...
बधाई यार. एक बहुत ही अच्छी लघुकथा.
रूपसिंह चन्देल
AAPKEE LEKHNI SE EK AUR SASHAKT LAGHU KATHA .
kaphi sashakt prabhav chhodti huee
aapki yeh rachna achchhi lagi,sundar.
Bahut Umda- Purvagrah ki kisi ne jaan bujh kar hi kiya hoga...
Umda laghu katha. Purvagrah jo na karva de.
कभी कभी एक बड़ी घटना की जड़ में एक बहुत ही मामूली सा कारण होता है, इस लघुकथा के माध्यम से बहुत प्रभावशाली ढंग से दर्शा दिया है आपने...|
एक सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई...|
प्रियंका
एक टिप्पणी भेजें