"अनुवाद मेरे लिए एक
सृजनात्मक कर्म ही
है- सुभाष नीरव"
अनुवाद को लेकर
सुभाष नीरव से अंजना बख्शी की बातचीत
मित्रो, मेरा यह इंटरव्यू हिन्दी की युवा कवयित्री डॉ. अंजना बख़्शी ने कुछ
वर्ष पहले उस समय लिया था जब वह डॉ. नहीं थीं और जवाहर लाल यूनिवर्सिटी, दिल्ली में ‘विभाजन की कहानियाँ’ विषय पर शोध कर रही थीं। उन्होंने मेरे पंजाबी से
हिन्दी अनुवाद कर्म को लेकर एक इंटरव्यू लिया जिसे
उन्होंने शायद अपने शोध में
इस्तेमाल किया, पर वह कहीं छपा
नहीं। डॉक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने यह इंटरव्यू हिन्दी की सरकारी
पत्रिको ‘आजकल’ में छपने के लिए दे दिया। कई वर्षों के बाद अब यह
इंटरव्यू ‘आजकल’ के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित हुआ। इसे मैंने फेसबुक पर अपने
मित्रों के संग साझा किया। लगभग सभी मित्रों ने कहा कि इसकी जानकारी आपसे ही मिल
रही है, न तो उन्होंने यह पत्रिका देखी है, न ही यह पत्रिका बाज़ार में उपलब्ध है।
साथ ही बहुत से मित्रों ने सूचित किया कि वे इसे फेसबुक पर पढ़ नहीं पा रहे हैं। चूंकि
‘आजकल’ हर किसी को सर्वसुलभ नहीं है, अतः इसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ के माध्यम से मित्रों से साझा कर रहा हूँ। इसे मेरे
कुछ मित्र ‘आत्म प्रचार’
कहेंगे, लेकिन मैं इसे गलत नहीं समझता।
प्रिंटिड इंटरव्यू में जो टंकण अथवा प्रूफ की त्रुटियां थीं, उन्हें ठीक किया गया है और अंत में विवरण को लेकर
कहीं कहीं आंशिक संशोधन भी। अपने कुछ अन्य इंटरव्यू भी जो पंजाबी और हिंदी में लिए
गए, भविष्य में मैं ‘सृजन-यात्रा’ के माध्यम से पाठकों, मित्रों से साझा करने का प्रयास करुँगा।
-सुभाष नीरव
अंजना बख़्शी: आपने अनुवाद के क्षेत्र में पहला
कदम कब रखा ? किस कृति अथवा कहानी का
अनुवाद आपने सर्वप्रथम
किया ?
डॉ. अंजना बख्शी |
सुभाष
नीरव: जून 1976 में मुझे भारत
सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिली थी। मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से नगर - मुरादनगर में रहता था और
नौकरी के लिए ट्रेन द्वारा दिल्ली आता-जाता था। सुबह-शाम के रेल के सफर में लगभग
चार घंटे का समय लगता था। मैं इस समय को पुस्तकें पढ़ कर व्यतीत करता। पुरानी
दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने वाली दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी का मैं सदस्य बन गया
था जहां हिन्दी-पंजाबी का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है।
पंजाबी साहित्य से मेरा वास्ता इन्हीं दिनों पड़ा। कहानी, कविता, उपन्यास
मैं ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ता। जो रचना मुझे अच्छी लगती उसे मैं हिन्दी में अनुवाद भी
करता। इन्हीं दिनों मैंने महिन्दर सिंह सरना की एक कहानी(मटर पुलाव) का अनुवाद
किया जो एक रिटायर्ड जज को लेकर लिखी गई खूबसूरत कहानी थी। मैंने उसे उस समय की
चर्चित हिन्दी कथा पत्रिका “सारिका“ में
प्रकाशन के लिए भेजा। कुछ ही दिनों बाद रमेश बत्तरा
जी का पत्र मिला। पत्र में मुझे तुरन्त मिलने की बात कही गई थी। मैं बेहद उत्साहित-सा उनसे मिलने दरियागंज स्थित “सारिका“
के
कार्यालय में अगले शनिवार को पहुंच गया। किसी भी पत्रिका के कार्यालय में जाने का
यह मेरा पहला अवसर था। रमेश बत्तरा हिन्दी के
चर्चित और प्रतिभाशाली कथाकार थे। पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद भी करते थे। वह बड़ी
सहजता और प्यार से मुझसे मिले। उन्होंने मेरे अनुवाद की प्रशंसा की लेकिन साथ ही
सरना जी की उस कहानी को प्रकाशित करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने मुझे
निरुत्साहित न होने के लिए कहा और पंजाबी कथाकार भीखी की एक कहानी मुझे “सारिका“
के
लिए अनुवाद करने को दी। उस कहानी का अनुवाद करने
में मुझे काफी दिक्कत पेश आई क्योंकि उसमें बहुत से आंचलिक शब्द थे जिनसे मैं
नावाकिफ़ था। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैंने शब्दों को लेकर अपने माता-पिता से,
पंजाबी
के कुछ मित्रों से और शब्दकोशों से सहायता ली
और कहानी का अनुवाद करके बत्तरा जी को थमा
दी। बत्तरा जी ने उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन कर
उसे “सारिका“ में प्रकाशित किया। कहीं भी प्रकाशित होने वाला
यह मेरा पहला अनुवाद था।
अंजना बख़्शी: आपके अनुवाद करने के क्या मापदंड
हैं ? अनुवाद करते समय आप कौन-कौन सी बातों का ध्यान रखते हैं ? एक
अनुवादक को किन बातों का ध्यान खासकर रखना चाहिए ?
सुभाष
नीरव: आरंभ में मैंने कोई मापदंड नहीं
बनाए थे। जैसे-जैसे अनुवाद की ओर मेरा रुझान बढ़ने लगा, मैं अनुवाद को लेकर
गंभीर होने लगा। मैंने अपना पहला मापदंड यह सुनिश्चित किया कि पंजाबी की केवल उसी
कहानी का मैं अनुवाद करुंगा जो मुझे बेहतरीन लगेगी। चाहे वह किसी बड़े लेखक की
कहानी हो या बिलकुल नए लेखक की। मुझे किसी लेखक के नाम से प्रभावित नहीं होना है,
उसकी
रचना से प्रभावित होना है। जब तक वह रचना मुझे प्रभावित नहीं करेगी, मैं उसका अनुवाद नहीं करुंगा। अनुवाद
करते समय मेरी यह हर संभव कोशिश रहती है कि रचना के मूल कटेंट को ज़रा भी क्षति न
पहुंचे और अनूदित रचना में मूल भाषा की सोंधी महक भी बनी रहे। एक अनुवादक से मैं
ऐसी ही अपेक्षा रखता हूँ।
अंजना बख़्शी: आपने विभाजन पर आधारित कौन-कौन सी
कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है और इन कहानियों का अनुवाद करते समय आपको
किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ा ?
सुभाष
नीरव: भारत-पाक विभाजन पर आधारित जिन
कहानियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया और जिनका मैंने हिन्दी में अनुवाद किया,
वे
इस प्रकार हैं:- महिन्दर सिंह सरना की कहानी “छवियाँ दी रुत“,
कुलवंत
सिंह विर्क की कहानी “खब्बल“, गुरदेव सिंह
रुपाणा की कहानी “शीशा“, मोहन भंडारी की कहानी “पाड़“।
विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी न भुलाई जाने वाली बेहद गंभीर
कहानियाँ हैं। इन कहानियों के लेखकों ने इस त्रासदी पर चलताऊ और कामचलाऊ ढंग से
नहीं लिखा है बल्कि समस्या की तह तक जाकर बहुत ही कलात्मक और सृजनात्मक ढंग से
अपनी बात कही है और ये कहानियां न केवल अपने विषय, वरन अपनी
प्रस्तुति, अपनी भाषा-शैली और सरंचना में कालजयी कहानियां
हैं जो विश्वस्तर की किसी भी बेजोड़ कहानी की टक्कर लेने में सक्षम हैं। ऐसी
क्लासिक कहानियों का अनुवाद करते समय मुझ जैसे अनुवादक को यह भय हमेशा बना रहा कि
क्या मैं इनके साथ न्याय कर पाऊँगा। ज़रा-सी भी छेड़छाड़ अथवा छूट की गुंजाइश इन कहानियों में नहीं है। मुझे
उतनी ही जीवन्त भाषा और मुहावरे में मूल कहानी को हिन्दी में प्रस्तुत करना था
जितनी के लिए वे हकदार थीं। ‘छवियों
दी रुत’, ‘खब्बल’ और ‘पाड़’ कहानियों ने मुझसे बहुत मेहनत करवाई।
एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति की आत्मा में मुझे गहरे उतरना पड़ा।
अंजना बख़्शी: क्या आपने इन कहानियों का अनुवाद
करते समय कुछ जोड़ा-तोड़ा भी है। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ ? कृपया बताएं।
सुभाष
नीरव: जी नहीं। मैंने विभाजन से जुड़ी
उक्त कहानियों के अनुवाद में जोड़ने-तोड़ने की छूट बिलकुल नहीं ली क्योंकि जैसा कि
मैंने ऊपर कहा है, ये कहानियाँ अपनी मूल संरचना में इतनी क्लासिक
हैं कि ज़रा-सी
छेड़छाड़ पूरी कहानी की आत्मा को क्षति पहुंचा सकती है। हाँ, विभाजन विषय से
हटकर मैंने जो लगभग 500 से अधिक कहानियों का
हिन्दी में अनुवाद समय समय पर किया है, उनमें मैं ऐसी छूट लेता रहा हूँ लेकिन
जोड़ना-तोड़ना सिर्फ उस सीमा तक ही कि मूल कहानी की आत्मा और उसकी खुशबू क्षतिग्रस्त
न होने पाए।
अंजना बख़्शी: आपने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद
करते समय कुछ शब्दों को ‘ज्यों का त्यों’ रहने दिया है,
इस
संबंध में कुछ बताएं। क्या समतुल्य शब्दों को भी रखा जा सकता था ? मुहावरेदार
भाषा के अनुवाद में आप कैसे ताल-मेल बैठाते हैं ?
सुभाष
नीरव: जी हाँ। अगर कुछ शब्दों को मैंने
ज्यो का त्यों रहने दिया है तो उसके कुछ कारण रहे हैं। पंजाबी के अनेक शब्द हिन्दी
भाषी बखूबी समझते-जानते हैं और बोलते भी हैं। ऐसे शब्दों का अनुवाद करना मैं उचित
नहीं समझता और उनको हू-ब-हू
हिन्दी में ले लेता हूँ। ये शब्द जब हिन्दी में हू-ब-हू आते हैं तो वे अपनी भाषा की महक के साथ आते हैं और दूसरी भाषा
को और अधिक समृद्ध बनाते हैं। पंजाबी की ग्रामीण अंचल से सम्बद्ध अनेकों कहानियों
में एक शब्द ‘फिरनी’ आता है, शुरुआती दौर में
मैं इस शब्द को हू-ब-हू
प्रस्तुत करते समय फुटनोट दिया करता था, परन्तु बाद में मैंने ऐसा करना बन्द कर
दिया। ऐसा ही एक शब्द ‘पग वट’ है। ‘सांझ’, ‘खाल’, ‘मंजी’, ‘खब्बल’ शब्द भी हैं।
इनके समतुल्य शब्दों को रखा जा सकता है पर उनके प्रयोग से वह खूबसूरती नहीं आती जो
मूल शब्दों को ज्यों का त्यों रख देने में रचना में आती है। आंचलिक शब्दों और
मुहावरों का अनुवाद करना सबसे कठिन और दुष्कर कार्य है। ऐसे समय में मैं इस बात पर
अधिक ध्यान देता हूँ कि मूल भाषा में कही गई बात अगर मुझे स्वयं हिंदी में कहनी हो
और वह भी मुहावरे में कहनी हो तो किस प्रकार कहूँगा। प्रयत्न करने पर रास्ता निकल
आता है।
अंजना बख़्शी: विभाजन पर आधारित कहानियाँ आपने
मूल पंजाबी में पढ़ी हैं अथवा हिन्दी में अनूदित ? दोनों में आपको
क्या फर्क नज़र आया?
सुभाष
नीरव: मैंने विभाजन से जुड़ी जिन कहानियों
का आरंभ में जिक्र किया है, उन्हें मैंने मूल पंजाबी में ही पढ़ा
है।
अंजना बख़्शी: ‘विभाजन का अर्थ
संस्कृति का विभाजन नहीं है’ इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
सुभाष
नीरव: पूर्णतः सहमत हूँ। किसी देश या
प्रान्त का विभाजन सीमाओं से जुड़ा भौगोलिक विभाजन होता है। निःसंदेह धरती पर खींची
गई लकीरें जनमानस के दिलों पर भी गहरी खरोंचे पैदा करती हैं और उनका दर्द बरसों
नहीं जाता। परन्तु, किसी देश की संस्कृति को विभाजित करना इतना सरल
कार्य नहीं है।
अंजना बख़्शी: अनुवाद के महत्व के बारे में आपके
विचार।
सुभाष
नीरव: कोई भी व्यक्ति अधिक से अधिक दो या
तीन भाषाओं की जानकारी रख सकता है। ऐसी स्थिति में अन्य भारतीय भाषाओं अथवा विश्व
की भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य से वह पूर्णतः वंचित रह जाएगा यदि अनुवाद की
सुविधा मुहैया न हो। दो भाषाओं के बीच अनुवाद एक महत्वपूर्ण सेतु का कार्य करता
है। इसी सेतु से होकर भाषाओं का आदान-प्रदान होता है और वे और अधिक समृद्धवान और
शक्तिशाली बनती है और उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार
में वृद्धि होती है। इस लिहाज से अनुवाद कार्य एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। कुछ
लोग इसे दोयम दर्जे का सृजन मानते हैं किन्तु मैं इसे अपनी मौलिक सृजनात्मकता का
ही एक प्रमुख हिस्सा मानता हूँ। शब्द की शक्ति और उसकी उपयोगिकता की सही जानकारी
आपको अनुवाद करते समय ही ज्ञात होती है। इससे आपका अपना मौलिक लेखन और भी अधिक
प्रभावकारी बनता है, ऐसा मेरा मानना है।
अंजना बख़्शी: क्या वर्तमान में विभाजन पर जो
कहानियाँ लिखी जा रही है, वे उसकी प्रामाणिकता व उसके गहरे दर्द
को शिद्दत से उकेरने में सफल हुई हैं ?
सुभाष
नीरव: विभाजन विषय पर हाल फिहलाल में
लिखी कोई कहानी मेरी नज़र से नहीं गुजरी है, न हिन्दी में और
न ही पंजाबी में जो विभाजन की त्रासदी को सम्पूर्णता में रेखांकित करती हों। हाँ,
इस
त्रासदी का जिक्र कुछ कहानियों में टुकड़ों में मिलता है। अपने समय और समाज से जुड़ा
कोई भी लेखक अपने आप को पूरी तरह अतीत से काट कर अलग नहीं रख सकता। अतीत की घटनाएं
जो इतिहास में दर्ज हो जाती हैं, वे भी उसे समय समय पर अपनी ओर खींचती
हैं और वह अपने ढंग से उन्हें अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी करता
है। ‘विभाजन’ ‘पंजाब संकट’ हमारे अतीत से
जुड़े ऐसे ही विषय हैं जो समय समय पर अभी भी हमें कुरेदते और लहुलूहान करते रहते
हैं। चूंकि हमारी वर्तमान स्थितियों के तार हमारे अतीत से भी जुड़े होते हैं,
अतः
ये विषय किसी न किसी रूप में हमारे वर्तमान लेखन में भी आ ही जाते हैं। (यह इंटरव्यू जिस समय दिया गया था, उस
समय तक विभाजन विषय पर मुझे कोई नई कहानी देखने को नहीं मिली थी। परन्तु, बाद में
इसी विषय पर जिन्दर की पंजाबी कहानी ‘ज़ख़्म’ आई जिसका मैंने हिन्दी में अनुवाद भी
किया। यह विभाजन त्रासदी पर एक बेहद
बेहतरीन अविस्मरणीय कहानी है)।
अंजना बख़्शी: बंटवारे का आप पर क्या साहित्यिक
प्रभाव पड़ा ?
सुभाष
नीरव: देखिए, मेरा जन्म
भारत-पाक विभाजन के छह बरस बाद का जन्म है। इस त्रासदी को मैंने न देखा और न ही
झेला है। लेकिन मैं उस परिवार में जन्मा हूँ जिसने इस त्रासदी को अपने तन और मन पर
बहुत गहरे तक झेला था। मेरे माता-पिता, दादा, नानी, चाचा
आदि पाकिस्तान में अपनी जमीन जायदाद, कारोबार आदि छोड़ कर पूरी तरह लुट-पिट
कर अपनी देहों पर गहरे जख्मों के निशान लेकर हिन्दुस्तान पहुंचे थे और दर-दर की
ठोकरें खाने के बाद उत्तर प्रदेश के एक बेहद छोटे से नगर - मुराद नगर
में आ बसे थे क्योंकि यहाँ स्थित एक सरकारी फैक्टरी (आर्डनेंस फैक्टरी) में उन
दिनों मजूदरों की भर्ती हो रही थी। यहाँ जब मेरे पिता और मेरे चाचा को लेबर के रूप
में नौकरी मिल गई और रहने को सर्वेन्ट क्वार्टर तो वे उसी में संतुष्ट हो गए।
उन्होंने सरकार से कोई क्लेम नहीं किया। मेरे पिता 70 वर्ष की उम्र
में भी प्रायः सोये-सोये डर जाते थे और ‘न मारो, न मारो’
‘बचाओ-बचाओ’
की
आवाजें लगाने लगते थे। टी. वी. पर भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित “तमस“
सीरियल
को देखकर वे रो पड़ते थे। दादा के शरीर पर कोई ऐसा हिस्सा नहीं था, जहां
कट न लगा हो। कुल्हाड़ियों-बर्छियों के घावों से दादा, चाचा और पिता का
शरीर बिंधा पड़ा था, पर किस्मत थी कि वे जिन्दा बच गए थे। जब मैं छोटा था, अपनी
बहन के संग दादा, नानी, चाचा और पिता से रात को सोते समय
विभाजन के किस्से सुना करता था। हमारी सांसें रुक जाती थीं और रोंगटे खड़े हो जाते
थे उन किस्सों को सुनकर। ये किस्से आज भी मुझे उद्वेलित करते हैं। बहुत कुछ है जो
इस विषय पर मुझे लिखने के लिए निरन्तर उकसाता रहता है। देखें, इसमें
कब सफलता मिलती है।
अंजना बख़्शी: इन दिनों आप क्या कर रहे हैं ?
अभी
तक आपने कितनी कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है ? ऐसी कोई कृति
जिसका अनुवाद करते समय आपको दिक्कतें-परेशानियाँ आई हों ?
सुभाष
नीरव: इन दिनों अपने मौलिक लेखन के
साथ-साथ पंजाबी के तीन उपन्यासों तथा युवा कथाकारों की कहानियों के अनुवाद में
संलग्न हूँ। अब तक मैं पंजाबी से हिंदी में लगभग चैबीस से अधिक पुस्तकों का अनुवाद
कर चुका हूँ जिनमें से प्रमुख हैं - पंजाब आतंक पर पंजाबी की चुनिंदा कहानियों का
संग्रह “काला दौर“, नेशनल
बुक ट्रस्ट के लिए पांच पुस्तकें - “कथा पंजाथ-2“, “ कुलवंत सिंह
विर्क की चुनिंदा कहानियां“, एस तरसेम की आत्मकथा “धृतराष्ट्र”, हरजीत अटवाल
का उपन्यास ‘साउथाल’ और डॉ महिंदर कौर गिल द्वार लिखी ‘माता सुंदरी जी’ की जीवनी। पंजाबी लघुकथा की चार पीढ़ियों की लघुकथाओं की पुस्तक “पंजाबी
की चर्चित लघुकथाएं“ जिन्दर का कहानी संग्रह “तुम नहीं समझ
सकते“, “ज़ख़्म, दर्द और पाप“, जतिन्दर सिंह
हांस का कहानी संग्रह “पाये से बंधा हुआ काल“, हरजीत अटवाल का
बहुचर्चित उपन्यास “रेत“ और “सवारी“, तथा
बलबीर माधोपुरी द्वारा लिखित पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा “छांग्या रुक्ख“
आदि।
अनुवाद में सबसे अधिक दिक्कत बलबीर
माधोपुरी की आत्मकथा “छांग्या रुक्ख“ में आई। यह मेरे
लिए एक चुनौती भरा काम था। पंजाब की ग्रामीण आंचलिक भाषा के चलते मुझे अनुवाद के
कई ड्राफ्ट बनाने पड़े, लेखक को पास बिठा कर घंटों बहस करनी पड़ी,
पंजाबी
के कई विद्वानों-मित्रों से विचार-विमर्श करना पड़ा तब कहीं दो-ढाई वर्ष की मेहनत
के बाद इस पुस्तक के अनुवाद को अन्तिम रूप दे सका। यह पुस्त्क हिंदी में ‘वाणी
प्रकाशन’ दिल्ली से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के अनुवाद में जिस सुख और आत्मतुष्टि
का अहसास हुआ है, वैसा अहसास अभी तक किसी अन्य पुस्तक के अनुवाद
में नहीं हुआ।
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अनुवाद- साहित्य को लेकर भाई सुभाष नीरव का किया गया कार्य हिन्दी साहित्य - जगत में सराहनीय है | उनकी अनुवाद-शैली सहज और स्वाभाविक है जो मूल रचना की आत्मा को अनुवाद साहित्य में अक्षुण्ण रखती है , यह उनके अनुवाद कर्म की खासियत है जो रेखांकित करने के योग्य है |
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