कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…
सुभाष नीरव
मेरा जन्म आज़ादी के छह वर्ष बाद एक गरीब पंजाबी परिवार में हुआ जो सन्
1947 के भारत-पाक विभाजन में अपना सब कुछ गंवा कर, तन और मन पर गहरे जख़्म लेकर
पाकिस्तान से भारत आया था और आश्रय व रोजी रोटी की तलाश में पश्चिम उत्तर प्रदेश
के एक बहुत छोटे से उपनगर – मुराद नगर- में आ बसा था। इस लुटे-पिटे परिवार में मेरे माता-पिता,
दादा, नानी और चाचा थे। उन दिनों मुराद नगर स्थित आर्डनेंस फैक्टरी में श्रमिकों
की भर्ती हो रही थी और मेरे पिता को यहाँ एक श्रमिक के रूप में नौकरी मिल गई थी,
साथ में रहने को छोटा-सा मकान भी। मकान क्या था, सफ़ेद खपरैल की छत और मिट्टी के
फर्श वाला एक बड़ा कमरा और एक छोटा-सा दीवार से ढका बरामदा। कहा जाता है, आज़ादी से पहले
यहाँ अंग्रेजों के घोड़े बांधे जाते थे। पर लुटे-पिटे मेरे परिवार को इस
‘सिर-लुकाई’ का ही बहुत बड़ा सहारा था। भारत में आकर उन्होंने पाकिस्तान में छूट गई
अपनी ज़मीन-जायदाद का कोई क्लेम नहीं भरा था, जो मिल गया, उसी सें संतोष कर लिया था
और अपने कड़वे अतीत के काले दिनों के साथ-साथ तन-मन पर झेले ज़ख़्मों को भूलने की
कोशिश करने लगे थे। अक्सर घर में होने वाली बातों में ये किस्से शामिल होते थे
जिन्हें सुन-सुनकर मैं बड़ा हो रहा था।
मुझसे बड़ी एक बहन थी।
कहते हैं कि मेरे दादा शिकार के बहुत शौकीन थे और उन्हें तीतर-बटेर पकड़ कर पिंजरों
में पालने का शौक था। उन्होंने मेरे जन्म पर अपने सारे पिंजरे खोल दिए थे और
तीतरों-बटेरों को आकाश में उड़ा दिया था। मेरे बाद दो बहनें व दो भाई और पैदा हुए।
नानी भी हमारे संग ही रहती थीं जिसे हम सब ‘भाबो’ कहा करते थे। नानी के कोई बेटा नहीं था, तीन बेटियाँ ही थीं। भारत-पाक विभाजन
के बाद, वह आरंभ में तो बारी-बारी से अपने तीनों दामादों के पास
रहा करती थीं, पर बाद में स्थायी तौर पर अपने सबसे छोटे दामाद
यानी मेरे पिता के पास ही रहने लगी थीं। वह बाहर वाले छोटे कमरे में जो रसोई का भी
काम देता था, रहा करती थीं। दरअसल, यह कमरा नहीं, छोटा-सा बरामदा था जो पाँच फीट ऊँची दीवार से घिरा हुआ था। इसमें लकड़ी
का एक जंगला था जो आने-जाने के लिए द्वार का काम करता था। ठंड के दिनों में दीवार
के ऊपर की खाली जगह और जंगले को टाट-बोरियों से ढक दिया जाता था। यह बरामदा-नुमा
कमरा बहुद्देशीय था। नानी का बिस्तर-चारपाई, रसोई का सामान, आलतू-फालतू सामान के
लिए टांट आदि को अपने में समोये हुए तो था ही, अक्सर घर की स्त्रियाँ इसे गुसलखाने
के रूप में भी इस्तेमाल किया करती थीं। नानी, माँ या बहनों को जब नहाना होता तो घर
के पुरुष घर से बाहर निकल जाते और टाट और बोरियों के पर्दे गिरा कर वे जल्दी-जल्दी
नहा लिया करतीं। जब तक नानी की देह में जान थी, हाथ-पैर चलते थे, वह फैक्टरी के साहबों के घरों में झाड़ू-पौचा, बर्तन मांजना,
बच्चों की देखभाल आदि का काम किया करती थी और अपने गुजारे लायक कमा लेती
थीं। बाद में, जब शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो उन्होंने काम करना छोड़ दिया और पूरी तरह
अपने दामाद और बेटी पर आश्रित हो गईं। दादा भी थे, पर वह साथ वाले घर में हमारे चाचा के संग रहते थे।
जब
मैं पाँच वर्ष का हुआ तो दादा मुझे घर के पास वाले आदर्श विद्यालय में दाखिला
दिलाने ले गए। बड़ी बहन भी वहीं पढ़ती थी। दादा बताया करते कि शुरू का एक महीना तो
मैंने उन्हें खूब परेशान किया। जैसे ही, वह मुझे स्कूल में छोड़कर अपनी पीठ घुमाते,
मैं रोता हुआ उनके पीछे-पीछे घर तक आ जाता। यह स्कूल छप्पर का बना था, बस हैड
मास्टर का आफिस ही पक्का था। सभी विद्यार्थी ज़मीन पर टाट बिछाकर बैठते थे और ये
टाट-बोरी हर विद्यार्थी अपने घर से लेकर आता था। बारिश के दिनों में बहुत आफ़त हो
जाती थी। छप्पर में से पानी टपकता था और कईबार तो कक्षाओं में पानी भर जाता था और
बैठने की कोई जगह नहीं बचती थी। ऐसे में, हैडमास्टर बच्चों की छुट्टी कर देता था
और हम सब बच्चे मन ही मन प्रार्थना करते थे कि हे भगवान, ये बारिश रोज ही हुआ करे।
मेरी
बड़ी बहन मुझसे सिर्फ़ एक कक्षा आगे थी। हम दोनों स्कूल के लिए एक साथ घर से निकलते
थे और एकसाथ घर लौटते थे। बस्ते के अलावा हमारे हाथों में तख्तियाँ होती थीं और
बोरी या टाट का टुकड़ा। स्कूल के बाहर एक छोटी-सी दुकान थी – छप्परवाली। दुकान पर
एक काले रंग का थुलथुल शरीर वाला आदमी सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ बाँधे बैठता था। आधी छुट्टी और पूरी छूट्टी के
समय उसकी दुकान पर बच्चों की भीड़ लग जाती। कोई चना-मुरमुरा माँग रहा होता, कोई
खट्टी मीठी गोलियाँ, कोई आम पापड़ और कोई चूरन या इमली। मेरी बहन को इमली खाने का
बहुत शौक था। उन दिनों मोरी वाला तांबे का सिक्का चला करता था, उस सिक्के की बहुत
सारी इमली आ जाती थी। हम भाई-बहन पूरी छुट्टी में रास्ते भर इमली खाते-चूसते हुए
लौटते। बहन से मेरी अक्सर इस बात पर लड़ाई होती थी कि उसने मुझे कम इमली दी और खुद
ज्यादा रख ली। सिक्का तो मुझे भी मिलता था, पर मैं उसे आधी छुट्टी में ही चूरन या
मीठी गोलियों पर खर्च कर देता था और बहन से छुपकर खाता था, उसे अपनी चीज़ में शामिल
नहीं करता था।
दूसरी कक्षा तक तो
मुझे उस स्कूल में कोई परेशानी नहीं हुई। पर जब मैं तीसरी कक्षा में आया और बहन
चौथी में तो मुझे स्कूल जाने में डर लगने लगा। मैं स्कूल न जाने के बहाने बनाता,
कभी पेट दर्द और कभी सिरदर्द। पर मेरे बहाने अधिक चलते नहीं थे। मेरे भय का कारण
स्कूल के दो मास्टर थे। एक पीटी मास्टर जो सुबह प्रार्थना के समय सब बच्चों की
ड्रैस, जूते, नाखून देखता और जो बच्चा ड्रैस में न होता या उसकी ड्रैस गंदी होती,
या पांव में सफेद कपड़े के जूते न होते या उंगलियों के नाखून बढे होते, तो उसकी खैर
न होती। शहतूत की पतली टहनी जब वह हवा में लहराता तो हम बच्चों की जान सूख जाती।
कई बच्चों का तो पेशाब निकल जाता। दूसरा, गणित मास्टर था, जिसका
नाम तो कुछ और था, पर सभी उसे खचेड़ू मास्टर कहते थे। वह देखने में दुबला पतला था
और उसके दायें हाथ की पांचों उंगलियां टेढ़ी थीं। पहाड़ा
याद न होने पर वह बच्चों की पीठ पर अपनी टेढ़ी उंगलियों वाले हाथ का गुट्टू बनाकर
जब ‘धांय-धांय’ करता तो मार खाने वाले की जो हालत होती, सो होती ही थी, दूसरे
बच्चों की भी मारे डर के घिघ्घी बंध जाती।
पर
इसी मास्टर ने हमें चौथी कक्षा में ही पचास तक पहाड़े कंठस्थ करवा दिये थे जो दसवीं
कक्षा तक हमें गुणा–भाग के सवालों को हल करने में बेहद सहायक हुए। चौथी कक्षा के
कक्षा-अध्यापक यही मास्टर थे। पूरी कक्षा को इन्होंने चार भागों में विभक्त कर
दिया था। चारों का एक एक मॉनीटर बना दिया। पहले भाग के विद्यार्थी वो थे जो
पढ़ने-लिखने में बहुत होशियार थे। दूसरे भाग में उनसे कम होशियार, तीसरे में उनसे
भी कम और चौथे में बिल्कुल नालायक। अक्सर मार इसी चौथे भाग के बच्चों को पड़ती।
मुझे इस चौथे भाग का मॉनीटर बना दिया गया था। मेरे हिस्से में दस-ग्यारह बच्चे थे
जो गरीब घरों से थे और आसपास के गांवों से आते थे। मैं इनकी कापियाँ जांचता और
मास्टर जी को दिखाता। ये बच्चे मेरा बहुत आदर करने लगे थे क्योंकि मैं उन्हें
अक्सर मास्टर जी की मार से बचा लिया करता था। ये बच्चे छुट्टी के दिन मेरे घर के
बाहर कुछ न कुछ लिए खड़े होते। उनके हाथों में थैले होते जिनमें हरा साग, हरी
सब्जियाँ, अमरूद, आम, गन्ने और न जाने क्या क्या भरा होता। मेरी नानी, मेरे दादा,
मेरे चाचा-चाची और मेरे माता-पिता यह सब देखकर दंग होते और मन ही मन खुश भी।
उन्हें लगता, उनका बेटा बहुत होशियार है इसलिए कक्षा में मॉनीटर है और ये बच्चे
इसीलिए हमारे बेटे को इस प्रकार के तोहफ़े देकर खुश होते हैं।
कक्षा
पाँच में कमलजीत नाम की हमारी कक्षाध्यापिका थीं। उनका नाम मुझे इसलिए अभी तक याद
है क्योंकि मेरी बड़ी बहन का नाम कमलेश था और घर में सभी उसे कमला या कमली कहकर
बुलाते थे। यह नई कक्षाध्यापिका इतनी सुन्दर थीं कि मैं हर समय छिपछिप कर उनके
चेहरे की ओर देखा करता था। गोल गोरे-चिट्टे चेहरे पर पतली-सी नाक और बिल्लोरी
आंखें देखकर मैं दस-ग्यारह वर्ष का बालक अपनी सुध-बुध खो देता था। फिर मेरे मन में
उनके करीब अधिक से अधिक खड़ा होने, उनसे बात करने की इच्छा तीव्र होने लग पड़ी। इसके
लिए मैं बहाने ढूंढ़ने लगा। और एक दिन उन्होंने मेरी चोरी पकड़ ली।
“तू मेरी ओर क्या घूरता रहता है ?”
यह
सवाल सुनकर मैं सहम-सा गया था।
टीचर ने मेरा उत्तर
न पाकर मुझे अपने पास खड़ा कर लिया तो मैं इतना घबरा उठा कि मेरा चेहरा रुआंसा हो
गया। उसने मुझे अपनी बांहों में लेकर प्यार से पूछा, “मैं तुझे अच्छी लगती हूँ?”
मैंने सिर हिलाकर ‘हाँ’ में उत्तर दिया।
“अच्छा ! कैसी लगती
हूँ ?”
मेरे चाचा को फिल्में
देखने का बहुत शौक था। कस्बे में टैंट वाला एक टाकीज़ था- जय टाकीज़। हर शुक्रवार को
नई फिल्म लगती थी। एक रिक्शा जो बड़े-बड़े रंगीन पोस्टरों से ढका होता, पूरे फैक्टरी
एस्टेट में घूमता था। रिक्शावाला लाउड-स्पीकर पर लच्छेदार भाषा में फिल्म की
मशहूरी करता था। हम बच्चे उसके पीछे पीछे दूर तक दौड़ते थे। पोस्टरों पर
हीरो-हीरोइनों के रंगीन
या श्याम-श्वेत चित्र हमें खूब लुभाते थे। जब भी कोई नई फिल्म लगती, चाचा फैक्ट्री
से आकर, खाना खाने के बाद साइकिल उठा अपने दोस्तों के संग रात का आखिरी शो देखने चल पड़ते। कभी कभी मुझे भी साइकिल पर बिठाकर ले जाते। उन
दिनों शम्मी कपूर और आशा पारीख की कोई फिल्म मैंने चाचा के संग देखी थी। फिल्म
देखने के बाद चाचा कई दिनों तक अपने दोस्तों के संग फिल्म की बातें किया करते रहते
थे। देवानंद, राजकपूर, शम्मी कपूर, नर्गिस, मीना कुमारी, आशा पारीख के नाम उनकी
बातों में बार बार आते थे। मैं उनकी बातें बड़े गौर से सुना करता था।
टीचर का प्रश्न
सुनकर मेरे मुँह से अचानक निकल गया, “आशा पारीख।”
मेरे
उत्तर पर वह एक ज़ोरदार ठहाका लगाकर हँस पड़ी और मेरे चेहरे पर हल्की-सी चपत लगा कर
बोली, “अभी तेरे पढ़ने के दिन हैं बेटा, आशा पारीख को छोड़ और मन लगाकर पढ़ाई कर।”
उन
दिनों पाँचवी और आठवीं की जिला स्तर पर परीक्षा
होती थी। हमारा सेंटर मुरादनगर की गंग नहर के उस पार एक गांव में पड़ा था। हम
बच्चों के माँ-बाप, हमें उस गांव के स्कूल में छोड़ आए थे। हमारे संग हमारे स्कूल
के कुछ अध्यापक भी थे जिनमें से कुछ वहीं बच्चों के संग रहते थे और कुछ रोज़ सुबह
साइकिलों पर स्कूल पहुँच
जाते थे और दोपहर में अपने घर लौट जाते थे। सब बच्चों के पास अपना अपना बिस्तर था
और टीन के सन्दूक या पीपे। मेरी माँ ने मुझे पंजीरी के लड्डू बना कर दिए थे। हमें स्कूल के
एक बड़े कमरे में ठहराया गया था। रात में हमारे अध्यापक हमें अगले दिन के पेपर की
तैयारी करवाते और खास खास प्रश्नों को दोहरवाते। कमल जीत मैडम हमारे बगल वाले कमरे
में अकेली थीं और उससे आगे वाले कमरे में तीन अध्यापक थे। मेरी हैरानी का कोई
ठिकाना न रहा जब कमलजीत मैडम ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा, “आशा पारीख के
आशिक, तू अपना पीपा बिस्तर यहीं मेरे कमरे में ले आ। तू मेरे संग रहेगा।”
करीब
सप्ताह भर हम उस गांव में रहे। मैं रोज़ रात में कमलजीत मैडम के कमरे में सोता था।
सोने से पहले वह मुझे लैम्प की रौशनी में पढ़ाती थीं और रात का खाना भी मुझे अपने
संग खिलाती थीं। रात में जब मैडम के बिस्तर की बगल में मैं अपना बिस्तर लगाकर
सोता तो उनकी देहगंध मुझे मदहोश-सा कर देती थी। औरत का स्पर्श, उसकी देहगंध, उसके
प्रति आकर्षण, ये सब किसी पुरुष को क्यों मदहोश करते हैं, उस आयु में मेरी समझ से
बाहर की बातें थीं। आज सोचता हूँ कि उन्होंने मुझ दस-ग्यारह बरस के बालक को अपने संग क्यों रखा ?
शायद, एक अनजान गांव में, एक अकेली जवान लड़की अपने अकेलेपन को भरना और अपने को
सुरक्षित महसूस करना चाहती थी।
पाँचवी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेरा स्कूल
बदल गया। अब मुझे सरकारी स्कूल की छ्ठी कक्षा में दाखिला मिल गया था। यह स्कूल
दसवीं तक था जो बाद में बारहवीं तक हो गया। इस स्कूल का एक बड़ा-सा मुख्यद्वार था
जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था – ‘आर्डनेंस फैक्टरी हॉयर सेकेंडरी स्कूल, मुराद
नगर’। यह स्कूल फैक्टरी के मेन गेट के पास उसकी दीवार से लगा हुआ था। रेलवे
स्टेशन, पुलिस थाना, पोस्ट आफिस इसके बहुत पास थे। रेलवे स्टेशन और स्कूल के बीच
की जगह पर एक बाज़ार लगता था जिसे ‘पैंठ’ कहा जाता था। इस बाज़ार में सब्ज़ी की
दुकानों के साथ-साथ कपड़े, किरयाने की दुकाने भी पटरी पर लगा करती थीं। आज भी यह
बाज़ार उसी जगह लगता है, पर अब यहाँ पक्के शेड बन गए हैं। स्कूल के पूर्व में एक
बहुत बड़ा ग्राउंड था, जहाँ रामलीला हुआ करती थी, पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के
समारोह होते थे, विभिन्न साँस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। अक्सर यहाँ रात में
फैक्टरी के कर्मचारियों को पर्दा टाँग कर फिल्में दिखाई जाती थीं। सन पैंसठ के
भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई.बी.चव्हाण
आए थे तो उनका भव्य स्वागत इसी ग्राउंड में किया गया था। देशभक्ति के गीत
लाउड-स्पीकरों पर गूँजते थे। ‘अ मेरे वतन के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी…’ लता
जी द्वारा गाया गीत हम सभी की आँखें नम कर देता था। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला,
माये, रंग दे बसंती चोला’ गीत हमारे भीतर देशभक्ति का जोश भर देता था। रक्षा
मंत्री के आह्वान पर स्त्रियों ने अपने गहने-जेवर उतार कर उनके सामने रख दिए थे।
उस युद्ध में हमारे सिपाहियों की वीरता के किस्से घर-घर, गली-गली गूंजते थे। यह एक
ऐसा माहौल था जिसने मेरे अंदर भी एक सिपाही बनने की ललक पैदा कर दी थी। भगत सिंह, चन्द्रशेखर
आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस की कहानियाँ मेरे अंदर देश के लिए मर मिटने का जज्बा पैदा
करती थीं।
स्कूल की पक्की इमारत सेमल, जामुन, नीम, शीशम आदि विभिन्न प्रकार के वृक्षों
से घिरे मैदान के एक कोने में बनी थी। मैंने पहली बार पक्के क्लास-रूम्स देखे,
डेस्क देखे, छत पर लटकते पंखे देखे, और दीवार पर बड़ा-सा ब्लैक बोर्ड ! पाँचवी
कक्षा तक टाट या बोरी पर नीचे धूल-मिट्टी में बैठने वाले छात्र के लिए यह एक अनौखी
विस्मयकारी बात थी।
छठी कक्षा में तीन बातें बिल्कुल नई हुई थीं। पहली यह कि अंग्रेजी पढ़ने की हमारी शुरुआत
छठी कक्षा से हुई। आजकल जो बच्चे नर्सरी में ही ए.बी.सी.
रटने लगते हैं, वह हमें छठी कक्षा में पढ़ाना शुरू की गई। अंग्रेजी की रंगीन किताब
मुझे बहुत आकर्षित करती थी। मेरे पास सिर्फ़ यही किताब नई थी जो पिता को मुझे
मजबूरी में लेकर देनी पड़ी थी। जब मैं एक कक्षा पास करके दूसरी कक्षा में जाता तो
पिता अपनी आर्थिक तंगी के कारण मुझे नई किताबें खरीदकर देने की बजाय पुरानी सेकेंड
हैंड किताबें लेकर देते थे, जिनके वर्के पीले पड़े होते और जो जगह जगह से फटी
होतीं। जब मैं अपने सहपाठियों के पास नई किताबें देखता तो मेरा मन उनके चिकने
पन्नों को स्पर्श करने को तरसता था। उनके चिकने पन्ने और उनकी खुशबू मुझे अपनी ओर
खींचती थी। पर मैं बेबस था। मुझे पुरानी किताबों से ही पूरा साल बिताना होता था।
दूसरी विशेष बात जो हुई, वह यह थी कि ‘संस्कृत’ के स्थान पर विद्यार्थियों को कोई
एक प्रादेशिक भाषा जैसे बंगला, उर्दू और पंजाबी में से एक चुनकर पढ़नी थी। मैं एक
पंजाबी परिवार से था, पर मेरे परिवार में से पंजाबी धीरे धीरे लुप्त हो रही थी। हम
सब घर में हिंदी में बात करते। कभी कोई मेहमान पंजाब से हमारे पास आता तो
माता-पिता, दादा, नानी ही पंजाबी में बात कर पाते। पर उनके मुँह से पंजाबी सुनकर
पंजाब से आए मेहमान हँसते थे। इस बारे में मैंने अपने माता-पिता से बात की, पिता
बोले – ‘सीखनी है तो अपनी माँ-बोली ही सीख ले। कम से कम कोई तो पंजाबी बोलने-लिखने
वाला हमारे परिवार में हो।’ बस, मैंने अगले दिन जाकर पंजाबी कक्षा में अपना नाम
लिखवा दिया। पंजाबी की टीचर कमला सरीन को जब मेरे पंजाबी सीखने का कारण पता चला तो
वह बहुत प्रसन्न हुईं। मैंने तीन वर्ष अर्थात छ्ठी, सातवीं और आठवीं कक्षा में
पंजाबी सीखी, जो बाद में आगे चलकर मेरे साहित्यिक जीवन में बहुत काम आई। तीसरी बात ने तो मेरे लिए एक नई दुनिया ही खोल दी थी। छठी कक्षा में हमारे हिंदी के अध्यापक बाल मुकुन्द जी थे। उनके पढ़ाने का ढंग बड़ा
रोचक था। वह पढ़ाते समय बच्चों के संग बच्चा बन जाते थे। वह हर छात्र को अक्सर वो
कहानी सुनाने को कहते थे जो उसने अपने माता-पिता, दादा-दादी अथवा नाना-नानी से
सुनी होती थी। इससे वह हमारी वाक-क्षमता और प्रस्तुति के ढंग को परखा करते थे। और
बताते थे कि कोई कहानी किस प्रकार अधिक से अधिक रोचक ढंग से सुनाई जा सकती है। एक
दिन खाली पीरियड में वह पूरी कक्षा को बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गए। इसमें
दीवारों से सटीं चमचमाती लोहे और लकड़ी की अल्मारियाँ थीं जिनमें किताबें बड़े करीने
से लगी हुई थीं। बीच में दो बड़े मेज़ थे जिन पर बहुत सारे अख़बार और पत्रिकाएँ पड़ी
थीं। पुस्तकालय क्या होता है, यह हमें पहली बार उसी दिन मालूम हुआ था। उन्होंने
कहा, “तुम यहाँ खाली घंटे में बच्चों की पत्रिकाएँ पढ़ सकते हो। यही नहीं, हर छात्र
महीने में अपनी पसंद की एक किताब भी इशु करवा सकता है। तुम्हें अपनी स्कूल की पढ़ाई
के साथ-साथ अच्छा बाल साहित्य भी पढ़ना चाहिए, पर यह ध्यान रखते हुए कि तुम्हारी
स्कूल की पढ़ाई में किसी तरह का विघ्न न पड़े।” यह हमारे लिए हिंदी टीचर का बहुत बड़ा
तोहफ़ा था। हम वहाँ खाली पीरियड में नंदन, चंदामामा, पराग पढ़ा करते। लाइब्रेरियन
हमें बच्चों की पुस्तकें भी सुझाता और एक एक पुस्तक हमें पढ़ने के लिए इशु भी करता।
मैं तो इन किताबों का दीवाना हो गया था। इनमें एक अलग और अद्भुत दुनिया सिमटी हुई
थी। इन किताबों ने मेरा मोहल्ले के बच्चों के संग खेलना बन्द करवा दिया था।
बाल-साहित्य की इन्हीं पुस्तकों ने शायद मेरे भीतर उस समय लेखन के बीज बोये होंगे
जो बाद में समय पाकर अंकुरित हुए।
इस
सरकारी स्कूल का वातावरण बहुत साफ़-सुथरा था। सभी टीचर्स बहुत अच्छे थे, मन लगाकर
पढ़ाने वाले। दो-तीन टीचर सख्त भी थे, पर उनकी सख्ती अपने विदयार्थियों को अच्छी
शिक्षा देने के लिए ही थी। स्कूल की बिल्डिंग के पीछे एक पक्की बाउन्ड्री से घिरा
बड़ा-सा खुला हरा मैदान था, जो हमें अपनी ओर खींचता था। पी टी टीचर हमें तरह तरह के
खेल खेलना सिखाते थे। आधी छुट्टी के समय हमारी क्लास के बच्चे जामुन के पेड़ों पर
चढ़ जाते थे और उनकी टहनियों पर झूलते हुए नीचे कूदा करते थे। मैं चोट लगने के डर
से ऐसा नहीं करता था, बस पास खड़ा होकर उनके करतब देखा करता था। सब मुझे डरपोक कहते
थे। एक दिन एक लड़का पेड़ से गिर गया था और उसकी दायीं कलाई की हड्डी टूट गई थी।
प्रिंसीपल साहब ने पूरी क्लास को सज़ा के तौर पर काफ़ी देर तक मुर्गा बनाए रखा था।
हमारी टांगें दर्द से कांपने लगी थीं और कनपटियों सहित हमारे चेहरे लाल हो उठे थे।
इस घटना के बाद स्कूल के किसी भी छात्र की पेड़ों पर चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई थी।
जब से मैं इस स्कूल
में आया था, मेरे मन में स्कूल और अध्यापकों को लेकर भय खत्म हो गया था। मैं सुबह
खुद स्कूल जाने के लिए उठता था, मुहल्ले के सार्वजनिक नल पर नहाता था, तैयार होता
था और स्कूल समय पर पहुँच जाता था। मैं अपनी ड्रेस तक खुद धोने लग पड़ा था। घर में
एक लोहे की प्रेस थी जिसे अंगीठी पर रखकर गरम करता और अपनी स्कूल की ड्रेस को
प्रेस करता। यहाँ कपड़े के सफ़ेद जूतों की जगह चमड़े के काले जूतों ने ले ली थी। ये
एक जोड़ी चमड़े के काले जूते पिता ने ‘पैंठ’ की एक दुकान से मुझे उधारे दिलाये थे और
कई महीनों तक इस उधार के पैसे नहीं चुका पाए थे।
छठी कक्षा में आने
के बाद से ही मुझे अपने घर की दयनीय हालत का कुछ कुछ अहसास होना प्रारंभ हो गया
था। परिवार बड़ा हो गया था। अब परिवार में नौ सदस्य थे। उन सस्ती के दिनों में भी पिता
अपनी सीमित आय में घर का बमुश्किल गुजारा कर पाते थे। उनकी स्थिति उन दिनों और अधिक
पतली हो जाती, जब फैक्टरी में 'ओवर टाइम' बन्द हो जाता। कई बार तो शाम को चूल्हा भी
न जलता था। फाके जैसी स्थिति हो जाती। पिता घर से छह-सात मील दूर कस्बे की जिस लाला
की दुकान से हर माह घर का राशन उधार में लेकर डाला करते थे, ऐसे
दिनों में वह भी गेहूं-चावल देने से इन्कार कर दिया करता था। पिछले माह का उधार उसे
पहले चुकाना पड़ता था, तब वह अगले माह के लिए राशन उधार देता था।
ओवर टाइम बन्द हो जाने पर पिता पिछले माह का पूरा उधार चुकता करने की स्थिति में न
होते, वे आधा उधार ही चुकता कर पाते थे। घर में कई बार शाम को
चावल ही पकता और उसकी मांड़ निकाल कर रख ली जाती और कुछ न होने पर उसी ठंडी मांड़
में गुड़-शक्कर मिलाकर हम लोग पिया करते और अपनी क्षुधा को जबरन शांत करने का प्रयास
किया करते थे। माँ, घर के बाहर बने बाड़े में से चौलाई का साग
तोड़ लातीं और उसमें दो आलू काटकर सब्जी बनातीं। मेरे दादा मछली पकड़ने के जाल बुना
करते थे। कई लोग उनसे जाल खरीदकर ले जाते थे। दादा के पास अपने भी जाल थे। इन तंगी
के दिनों में वह अपना जाल उठाकर निकल जाते। शाम को ढेर सारी मछलियाँ पकड़कर लाते।
रोटी की जगह हमें मछलियाँ ही खाने को मिलतीं।
पिता फैक्टरी में बारह
घंटे लोहे से कुश्ती किया करते थे। फैक्टरी की ओर से रहने के लिए उन्हें जो मकान मिला
हुआ था, वहाँ
आसपास पूरे ब्लॉक में विभिन्न जातियों के बेहद गरीब मज़दूर अपने परिवार के संग रहा करते
थे, जिनमें पंजाबी, मेहतर, मुसलमान, पूरबिये, जुलाहे,
ब्राह्मण, बंगाली आदि प्रमुख थे। एक ब्लॉक में आगे-पीछे कुल 18 क्वार्टर होते थे- नौ आगे, नौ पीछे। दोनों तरफ ब्लॉक
के बीचोंबीच एक सार्वजनिक नल होता था, जहाँ सुबह-शाम पानी के लिए धमा-चौकड़ी मची रहती थी, झगड़े होते थे, एक दूसरे की बाल्टियाँ टकराती थीं। जहाँ औरतों में सुबह-शाम कभी पानी को
लेकर, कभी बच्चों को लेकर झगड़े हुआ करते थे, हाथापाई
तक हुआ करती थी। घरों में तब बिजली नाम
की कोई चीज नहीं थी। घरों में मिट्टी के तेल के दीये या लैम्प जलते थे। बस, स्ट्रीट लाइट हुआ करती थी। ऊँचे-लम्बे
लोहे के खम्भों पर लटकते बल्ब शाम होते ही सड़क पर पीली रोशनी फेंकने लगते थे। हम
भाई बहनों को रात के समय अपनी पढ़ाई-लिखाई मिट्टी के तेलवाले लैम्प की रोशनी में करनी
पड़ती थी या फिर घर के पास सड़क के किनारेवाले किसी बिजली के खम्भे के नीचे चारपाई बिछाकर,
उसकी पीली मद्धिम रोशनी में अपना होमवर्क पूरा किया करते थे।
मौहल्ले में जगदम्बा, मुन्नी, सूरज, असलम, राम प्रताप, मनोहर, धरमी, मेरी
बहन कमली, मैं और मेरे छोटे भाई-बहन गर्मी के दिनों में रात नौ-नौ बजे तक
आइस-पाइस, छुअन-छुआई खेलते। दिन में छुट्टी के दिन स्टापू और पिट्ठू भी। आइसपाइस
खेलते हुए हमें बहुत मजा आता। हम कभी बाड़े में झाड़ियों-दरख्तों के पीछे छुपते, कभी
कच्चे कोठे के पीछे, कभी कोठे के काले अंधेरे में और कभी किसी की चारपाई के नीचे।
हम सबके माता-पिता चीखते-चिल्लाते रहते कि अंधेरे में झाड़ियों, दरख्तों के पीछे या
कोठे में ना छिपा करो, कोई कीड़ा-जानवर काट लेगा। पर हम बाज कहाँ आते थे। एक बार
मैं और मुन्नी छिपने के लिए राम प्रताप के कोठे में जा घुसे। कोठे में एक तरफ़ भूसा
भरा था और दूसरी तरफ एक चारपाई खड़ी थी। कोठे के अंदर घुप्प अंधेरा था। मैं और
मुन्नी कोठे के एक कोने में चारपाई के पीछे सटकर बैठ गए। तभी, हमें कोठे के दूसरे
कोने में भूसे के पास कुछ सरसराहट-सी सुनाई दी। अँधेरे का भी अपना एक उजाला होता
है, उसी नीम उजाले में हमने देखा, वहाँ दो साये आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। हम डर गए। हमें वे भूत-प्रेत लगे। हम
दोनों के दिल ज़ोरों से धड़कने लगे। हमारी सांसों की आवाज़ तेज हो गई। कुछ देर बाद दोनों साये कोठे से बाहर निकल गए।
जो साया बाद में कोठे से बाहर निकला, उसके पैरों से ‘छन-छन’ की आवाज़ भी हमें सुनाई
दी। बाद में, हम उस कोठे को ‘भूतवाला कोठा’ कहने लग पड़े थे। रात में क्या, हम दिन में भी उस तरफ़ मुँह न करते थे।
गरमी
के दिनों में सभी अपने अपने घरों के बाहर चारपाइयाँ बिछाकर सोते थे। सन 60-62 में
बैटरी से चलने वाले रेडियो हुआ करते थे। मेरे पिता को रेडियो रखने और सुनने का
बहुत शौक था। पूरे मुहल्ले में सबसे पहले हमारे घर ही नीली बत्ती वाला रेडियो आया
था। काली बिल्ली की तस्वीर वाली एवरेडी की बड़ी-सी बैटरी से चलने वाले उस रेडियो को
पिता शाम के वक्त घर के बाहर एक मेज पर रख देते थे और समाचार और गाने सुनने के लिए
आसपास के लोगों की हमारे घर के आगे भीड़ लग जाती थी। फिर, बाद में ट्रांजिस्टर आ गए
जो सेल से चला करते थे और छोटे होते थे। जिन्हें उठाकर आसानी से कहीं भी ले जाया
जा सकता था। पिता, दिल्ली से एक छोटा ट्रांजिस्टर खरीद लाए थे और रात में वह अपनी
चारपाई के सिरहाने रखकर सुना करते थे।
गर्मियों के दिन थे।
एक दिन सभी अपने अपने घर के बाहर चारपाइयाँ डालकर सोने की तैयारी में थे कि अचानक
शोर मच गया, “पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया।” यह अप्रैल, 1965 की बात है।
मुराद नगर की आर्डनेंस फैक्टरी बम बनाने की सरकारी फैक्टरी है और पाकिस्तान इस
फैक्टरी को बर्बाद करना चाहता था। लाल बहादुर शास्त्री उस समय देश के प्रधानमंत्री
थे जिन्होंने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया था। लोगों ने अपने अपने बाड़ों में
अंग्रेजी के ज़ैड अक्षर की खाइयाँ खोद ली थीं। रात में ब्लैक-आउट होता था। किसी भी
समय सायरन बजने लगता और सब अपनी अपनी चारपाइयों से उठकर खाइयों में कूद पड़ते।
इन्हीं दिनों अन्न का भंयकर अकाल पड़ा। गेहूं-चावल मिलता नहीं था। जो मिलता था,
बहुत खराब मिलता था। उस समय तो हमने जौं- बाजरे की बिना चुपड़ी रोटियाँ भी खाईं थीं
जिन्हें गरम-गरम ही खाया जा सकता था, ठंडी हो जाने पर वे पत्थर-सी सख्त हो जाती थीं और उन्हें
चबाते-चबाते हमारे मुँह दुखने लगते थे।
एक दिन रात में आस-पड़ोस के बड़े-बुजुर्ग ट्रांजिस्टर के पास घेरा बनाकर
बैठे समाचार सुन रहे थे और हम बच्चे लुका-छिपी का खेल खेल रहे थे। खेल खेल में
छिपने के लिए मुझे और मुन्नी को कोई उपयुक्त जगह न मिली तो हम दोनों खाई में छिप
गए। मुन्नी ने मेरा दायां हाथ पकड़ रखा था। अँधेरे में दूधिया चाँदनी बिखरी थी। इसी
दूधिया चाँदनी में मुन्नी का सांवाला चेहरा दमक रहा था। वह मुझे बेहद सुन्दर लग
रही थी। न जाने मेरे मन में क्या आया, मैंने एक झटके से उसका मुँह चूम लिया।
मुन्नी मेरी इस हरकत से सकपका गई और उसने शरमाकर अपना चेहरा घुटनों के बीच छिपा
लिया। किसी लड़की को चूमने का यह पहला अवसर था। कह सकते हैं कि मेरे जीवन का पहला
चुम्बन ! अभी मैं और मुन्नी इस चुम्बन के असर में ही थे कि तभी, फैक्टरी का सायरन
बजने लगा और लोग पट पट करके खाई में कूदने लगे। किसी को पता ही नहीं चला कि हम
सायरन बजने पर खाई कूदे थे या सायरन बजने से पहले ही वहाँ छिपे बैठे थे।
घर
में भूख थी, फाके थे, तंगियाँ-तुर्शियाँ थीं, परेशानियाँ थीं, और पिता इन सबसे अपने ढंग से लड़-जूझ रहे
थे। पर मेरा बचपन इन सबके बावजूद चौदह वर्ष की उम्र तक लगभग मस्ती भरा रहा था।
अपने माता-पिता की दुख-तकलीफ़ों को लेकर मैं कुछ पल के लिए उदास अवश्य होता था, पर
अपने संगी-साथियों में शामिल हो जाने पर मैं बेफिक्र-सा हो जाता। स्कूल की पढ़ाई
में मेरा मन लगने लगा था। आठवीं कक्षा तक आते आते मैं अन्तर्मुखी होता चला गया, अब
मैं मोहल्ले के बच्चों के संग कम खेलता था। जिस समय बच्चे खेल रहे होते, मैं अपने
घर के किसी कोने में अथवा बाड़े के किसी पेड़ की छाया में बैठा किताबों में सिर दिये
रहता। मेरे हाथ में कोर्स की कोई किताब न होती तो लाइब्रेरी से इशु करवाई कोई न
कोई किताब होती। अब मुझे अपने पिता जो अपनी गृहस्थी का पहिया हर हाल में चलता रखने
की कोशिश में जुटे रहते थे, बड़े ही निरीह और दयनीय लगते थे। मैं चाहता था कि मैं
जल्द से जल्द पढ़कर अपने पिता के कंधों पर रखा जुआ अपने कंधों पर रख लूँ। पिता की आँखों
में भी शायद यही सपना था, इसलिए उन्होंने तमाम तकलीफों-परेशानियों के बावजूद मुझे
पढ़ने से कभी नहीं रोका।
हर
व्यक्ति का बचपन एक नींव की भाँति होता है। इस नींव को हमारे माता-पिता, घर के
बड़े-बुजुर्ग, अध्यापक मज़बूत और पुख्ता बनाते हैं। एक मजबूत नींव का बचपन एक मजबूत
मनुष्य का निर्माण करता है। और एक मजबूत मनुष्य अपने समाज और देश को मजबूत बनाने
में सहायक होता है। मैं जब जब अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो एक रोमांच से
भर जाता हूँ और मुझे एक गर्व की भी अनुभूति होती है !
4 टिप्पणियां:
बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरण बन पड़ा है. यह तुम्हारी आत्मकथा का आधार बन सकता है---विस्तार के साथ.
बधाई,
रूपसिंह चन्देल
bada achcha laga.......
bhai subhaash jee aapke is sansmaran ne mujhe andar tak chhu liya hai.vakeii us vakt jinhone is trasdee ko bhoga hai use ham muhsoos hi kar sakte hain.
सुभाष जी,
आपके संस्मरण को पढ़कर मन भावुक हो गया. हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे की त्रासदी के कारण ज़िंदगी में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा आपके माता पिता एवं परिवार के अन्य बुज़ुर्ग सदस्यों को. परिस्थिति का सामना कर आज आपने मुकाम हासिल कर लिया है. हार्दिक शुभकामनाएँ!
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